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________________ धन्य-चरित्र/205 रुकिए, जिससे मैं शीघ्र ही घी से परिपूर्ण चार मोदक बनवाता हूँ। उन मोदकों को लेकर फिर चलते हैं। वहाँ जाकर मोदकों को खाकर फिर तैयार होकर कार्य करेंगे। आप स्वामियों को भी इस सेवक के हाथ की स्फूर्ति का ज्ञान होगा। इसी रात में उसके खण्ड करके आपको दूंगा। उसके बाद जैसी मेरी प्रयास-क्रिया होगी, तदनुरूप ही आपकी दान रूपी प्रसन्नता होगी। मैं तो आपका सेवक हूँ। आपकी अनुवृत्ति से जीता हूँ। आपका कार्य तो सिर के बल चलकर भी करूँगा।" इस प्रकार की बातों से उनका मन प्रसन्न करके, घर के अन्दर ले जाकर, पान आदि खिलाकर तथा हुक्का आदि पिलाकर, घर के ऊपरी भूमि में जाकर, आटा-गुड़-घृत आदि से संस्कारित सात मोदक बनाये। उनमें से छ: मोदक आकार में कुछ बड़े तथा विष-मिश्रित बनाये तथा एक अपेक्षाकृत छोटा तथा विष-रहित खुद के खाने के लिए बनाया। उन्हें भीगे पत्तों में लपेटकर, व्यंजनादि के बीच में रखकर, गाँठ आदि लगाकर तथा लोहघन-छेदनिका आदि लेकर चोरों का सहायक बनकर घर से निकाला। जल्दी-जल्दी चलते हुए वे लोग शिला के समीप पहुँचे। चोरों ने स्वर्णकार को शिला दिखायी। वहाँ भी उसे देखकर और मन में लाभलता के प्रहार से विह्वल होकर चोरों के सामने आहार की गांठड़ी लाकर निर्विष मोदक को अपने हाथ में लेकर इस प्रकार बोला-" हे भाग्यनिधि स्वामियों! आपके ऊपर विष्णु तुष्ट है, जिससे कि यह अपरिमित स्वर्णशिला आपके हाथ में दे दी। अतः आप लोग भाग्यशालियों में अग्रणी हैं। आपके प्रसाद से मेरी भी दरिद्रता गयी। अतः सबसे पहले 'शतं विहाय भोक्तव्यम्'- इस नीतिवाक्य का अनुसरण करते हुए ये घृतयुक्त मोदक खाने चाहिए। बाद में तैयार होकर दरिद्रता का नाश करनेवाली इस शिला के टुकड़े करूँगा।" यह कहकर छहों चोरों को एक-एक विषयुक्त मोदक दिया। उन्होंने भी अपनी आयु को हटानेवाले (नाश करनेवाले) मोदक खा लिए और परम तृप्ति को प्राप्त हुए। तब स्वर्णकार ने कहा-"मेरे पीछे-पीछे कुएँ के समीप आयें। जल को निकालूँगा। उससे कुल्ला आदि करके हाथ-पाँवादि धोकर कार्य करने के लिए तैयार हो जाते हैं।" फिर वह देह चिन्ता के लिए गया। तब एक नीति-कुशल चोर ने कहा-"तुम लोगों ने ठीक नहीं किया।" दूसरे ने पूछा-"क्या? क्या?" उसने कहा- “जो आप स्वर्णकार को यहाँ लेकर आये, उसे स्वर्ण-शिला दिखायी -यह सब अच्छा नहीं किया। शास्त्रों में और लोक व्यवहारों में कहा गया है कि 'स्वर्णकार अविश्वसनीय होता है'। पूर्व में यह वार्ता नहीं सुनी कि ___व्याघ्र-वानर-सर्प-स्वर्णकार की कथा कूप के अन्दर गिरे हुए एक व्याघ्र, एक वानर, एक सर्प तथा एक स्वर्णकार में से प्रथम तीनों को एक ब्राह्मण द्वारा बाहर निकाले जाने पर उन तीनों ने तो
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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