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________________ धन्य-चरित्र/203 इस प्रकार के जटिल के वचनों को सुनकर और उस शिला को देखकर वे चोर लोभ-समुद्र में लीन होते हुए विचार करने लगे- "हे भाइयों! इस जटिल का दम्भ-कौशल्य ज्ञात हो गया कि “मुझे देवता ने निधि दिखायी है!' इसे तो पहले किसी राजा ने सुवर्णमयी और रसमयी शिला बनाकर भूमि में निधि के रूप में छिपाकर रखी होगी। इसके बाद बहुत समय बीत जाने के बाद बरसात आदि से मिट्टी जल में बह जाने से इसका एक भाग अनावृत हो गया है। इधर यह जटिल घूमता हुआ यहाँ आया होगा और शिला के एक देश को देखकर लोभ से अपनी करके बैठ गया। यह पूर्ण रूप से तो इसको ग्रहण करने में समर्थ नहीं है। अतः हमारे आगे कैसी दम्भ-रचना करता है! कि प्रत्येक मनुष्य को हजार-हजार मूल्य का धन दूँगा। आधा नहीं, तृतीय अंश नहीं, चतुर्थ, पंचम या सप्तम अंश भी नहीं, बल्कि सारा का सारा मैं एकाकी ही ग्रहण करूँगा। क्या यह इसके बाप का धन है, जो कि इस प्रकार ठगता है। अतः इसको मारकर हम सारा धन ग्रहण कर लेंगे।" तब उनमें से एक ने कहा-"इस तपस्वी को हम कैसे मारेंगे?" दूसरे ने कहा-"इसका तपस्वी-पना तो गया। यह तो हमारे जैसा वंचक या ठग है। हम चोर हैं और यह धूर्त है। दोनों ही परद्रव्य को ग्रहण करनेवाले हैं। तो फिर इसको मारने में दोष ही क्या है? यह सारा धन हमारे हाथ में आ जायेगा, तो हम सभी ठाकुर के जैसे सुख का अनुभव करेंगे और चौर-कर्म को छोड़ देंगे। अतः इसको मारकर सारा धन ग्रहण कर लेना चाहिए।" इस प्रकार की मंत्रणा करके दो जनों के द्वारा जटिल को बातों में व्यस्त कर दिया। अन्य ने पीछे से खडग के द्वारा उसका मस्तक काट दिया। उसके बाद सभी ने पास जाकर उस सुवर्णमयी शिला को हाथ से स्पर्श किया । अत्यधिक सघन शिला जानकर विचार करने लगे कि "यह शिला तो हमारे हाथ में रहे हुए खनित्रादि शस्त्रों के द्वारा छेदन करने के लिए शक्य नहीं है। पूरी शिला को भी कोई उठा नहीं सकता। इसी रात्रि में इसे ले जायें, तो ही हमारी है। दिन हो जाने पर तो अनेक विघ्न उपस्थित होंगे।" तब एक ने कहा-“घनछेदनिका आदि के बिना चिंतित अर्थ की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए इस नगर मे अमुक नाम का एक सुवर्णकार है। हमारी जाति के लोगों का परिचित है। विश्वास रूपी विश्राम का भाजन है। अतः उसके घर जाकर रहस्य कहकर घन-छेदनक आदि सहित उसे इस अरण्य में लाकर इस शिला को खण्डित कराया जाये, तो ही कार्य की सिद्धि को सकती है। उसे प्रयास से अधिक धन देकर प्रसन्न कर देंगे।" उसकी बात साध्य के अनुकूल होने से सभी ने अनुमति प्रदान कर दी। तब एक ने कहा-"इन तीनों मृतकों को कुछ दूर हटाकर जाया जाये, तो ही अच्छा, फिर वैसा कर वे नगर के अन्दर गये। उस स्वर्णकार के घर जाकर उसे
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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