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________________ धन्य - चरित्र / 202 देखकर उस जटाधारी की चेतना लोभ के कर्दम से मलिन हो गयी। मन में विचार करने लगा -"अहो ! इतने परिमाण में धन है । इसके लाभ से तो राजराजेश्वर के पद का अनुभव किया जा सकता है। जिसके लिए कष्ट किया जाता है, वह तो यहीं पर मिल गया । अतः यहीं रहना चाहिए ।" इस प्रकार विचार करके इधर-उधर देखने लगा, तो वे दोनों राजसेवक वहाँ गिरे हुए दिखायी दिये। उसने सोचा- "निश्चय ही ये दोनों धन के लिए परस्पर शस्त्र - घात के द्वारा मरे हुए दिखायी देते हैं । मार्ग के निकट रहा हुआ धन किससे छिपा रहता है? अतः यहाँ नहीं रखना चाहिए । इसे समस्त रूप से किसी के द्वारा नहीं उठाया जा सकता, अतः इसके टुकड़े करके किसी गुप्त स्थान में भूमि में दबाकर उसके ऊपर झोंपड़ी बनाकर वहाँ निवास किया जाये, तो चिंतित अर्थ की सिद्धि हो । पर घन- छेदनिका आदि लोह - शस्त्र के बिना कैसे इसको तोडूंगा? अतः किसी के पास खोजकर उन वस्तुओं को लाकर बाद में अपना इच्छा करूँगा । पर अब तो रात हो गयी है। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? यदि इसे छोड़कर किसी गाँव में औजार लेने के लिए जाता हूँ, तो पीछे से कोई भी बलशाली आकर इसे ग्रहण कर लेगा और सोचा हुआ सब बेकार हो जायेगा । " इस प्रकार संकल्प जाल में उलझा हुआ था कि इतने में विविध शस्त्र हाथ में लिए हुए छ: चोर आ गये। उस नग्न - जटिल को देखकर नमस्कार करके इस प्रकार बोले "हे स्वामी! इस निर्जल, मानव-रहित वन में आप क्या कर रहे हैं?" इस प्रकार के चोरों के कथन को सुनकर जटिल ने कहा- "हम जैसे मुक्ति के संग करनेवालों को वनवास ही श्रेयस्कर है। जो कोई भी महा - तपस्वी हुए हैं, उन्होंने यही रीति बतायी है । पर तुम लोग कहो कि घर छोड़कर रात्रि के समय जंगल में क्यों आये हो?" तब उन्होंने कहा—“आप जैसों के सामने हम क्या झूठ बोलें। हम तो चोर हैं। कठिनाई से भरने योग्य पेट की पूर्ति के लिए चोरी करने जा रहे हैं।" उनके वचन सुनकर जटिल ने विचार किया - "ये धनार्थी शस्त्र - सहित हैं, इनको कुछ भी धनादि देकर उस शिला के खण्ड करवा लूँ ।" इस प्रकार विचार कर उनको बोला - "हे चोरों ! अगर मेरा कहा हुआ करोगे, तो तुम सब में से प्रत्येक को हजार-हजार दीनार दूँगा । चोरों ने कहा- "बहुत अच्छा! हम तो आपके सेवक हैं। आप जो आज्ञा देंगे, वह हम करेंगे।" तब जटिल ने वह शिला दिखायी और कहा - " मैंने तपोबल से वनदेवी की आराधना की और देवी ने प्रसन्न होकर यह निधि मुझे प्रदान की है । अतः इसे खण्ड-खण्ड करके तीर्थ-तीर्थ में व्यय करूँगा । इसलिए तुम लोग इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो।" I
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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