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________________ धन्य-चरित्र/187 समूह से अंलकृत, पुण्य से पवित्र ब्राह्मण द्वारा कहे हुए आशीर्वचन को सुनकर, आसन से उठकर, सात-आठ कदम सम्मुख आकर, साष्टांग प्रणाम करके, दूसरे भद्रासन पर बैठाकर, स्वयं भी अपने आसन पर बैठकर, उसके गुणों से रंजित हृदयवाला होते हुए ब्राह्मण को बोला-"हे विद्वद् शिरोमणि! आप कहाँ से पधारे हैं? किस देश के निवासी हैं? यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? आप किस पुण्यवान के घर पर ठहरे हैं? आपका नाम क्या है?" इत्यादि धनिक के प्रश्नों को सुनकर ब्राह्मण ने कहा-'हे बाह्मण-प्रतिपालक श्रेष्ठी! मैं काशी देश की सुनगरी वाराणसी नाम की महानगरी में षट्कर्म से निरत होकर रहता हूँ। समस्त शास्त्रों में मेरा परिचय है। धर्मरुचिवालों को पुराणादि सुनाने की मेरी वृत्ति है। अनेक ब्राह्मणों को वेदादि शास्त्रों के अध्ययन का दान करता हूँ वहाँ के नगर का स्वामी भी मेरी भक्तिपूर्वक सेवा करता है। गृहस्थ धर्म के निर्वाह के लिए उसने अनेक सैकड़ों ग्रामादि मुझे दिये हैं। वहाँ सुखपूर्वक रहकर शास्त्र पढ़ाते हुए एक बार तीर्थयात्रा का अधिकार आया-'जिसने मनुष्य जन्म को प्राप्त करके तीर्थयात्रा नहीं की, उसका अवतार व्यर्थ ही है। इस प्रकार महाफल मानकर मेरी तीर्थ-स्पर्शना में श्रद्धा पैदा हुई । अतः मैं सुखासन आदि वाहन-सामग्री घर पर होते हुए भी उन सभी को छोड़कर ‘पाद-विहार से तीर्थ करने पर महाफल होता है' ऐसा मानकर एकाकी ही तीर्थ-स्पर्शना करता हुआ कल ही यहाँ आया हूँ। ___एक शास्त्राभ्यास-मठ में मैं ठहरा हुआ हूँ। वहाँ रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर स्नानादिपूर्वक षट्-कर्म करके नगर चर्या के लिए निकला हूँ। चतुष्पथ में घूमते हुए आप जैसे पुण्यवान के दर्शन हो गये। 'यह योग्य है' ऐसा जानकर आपको आशीर्वाद दिया।" इस प्रकार कहकर विरत होने पर श्रेष्ठी ने हाथ जोड़कर कहा-"आज हमारा महान पुण्योदय हुआ कि सकल-गुण-गण से अलंकृत, कृत-यात्र, तीर्थ-निवासी आप जैसे महापुरुष के दर्शन से मनुष्य जन्म सफल हुआ। प्रत्यक्ष ईश्वर-दर्शन की तरह आपके दर्शन को मानता हूँ। आज मुझ दीन पर आपने महती कृपा की। आज बिना बुलाये देवी नदी (गंगानदी) मेरे घर के आँगन में आयी है-ऐसा मानता हूँ। अतः आप अपनी अमृत बरसानेवाली वाणी द्वारा कृपा करके अनुग्रह करो।" तब उस ब्राह्मण ने अत्यधिक मधुर वाणी में अवसर के अनुकूल राग-स्वर-ग्राम-मूर्च्छना आदि से युक्त सुनने में कटु-क्लिष्ट अर्थ आदि दोषों से रहित, शृंगार आदि रस से गर्भित अनेक अर्थों को प्रकट करनेवाले विभ्रम–अलंकार से युक्त विविध छंद-अनुप्रास आदि से युक्त, चित्त को प्रसन्नता प्रदान करनेवाले, अश्रुतपूर्व, अन्वर्थ से युक्त वर्ण से विभूषित ऐसे उदात्त स्वर से सूक्ति-पाठ को पढ़ाना शुरू कर दिया। तब उसके सकल-गुण-गण से अलंकृत हृदयवाला, कानों का हरण किये हुए के समान, समस्त गृहकार्य को भूलकर, आँखों को फाड़कर मुँह खोलकर
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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