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________________ धन्य-चरित्र/186 और भी, जैन मुनियों को छोड़कर प्रायः जो-जो भी तुम्हारी सेवा करते हैं, वे सभी मेरे लिए ही तुम्हारी सेवा करते हैं। उनका शास्त्र-प्रयास 'शास्त्र-विशारद होकर लक्ष्मी प्राप्त करूँगा' इस साधन की सिद्धि के लिए होता है। इस लोक में जो बहुत से बालक तुम्हारा अनुसरण करते हैं, वे उत्साह रहित होकर माता-पिता आदि के भय से या अध्यापक के भय से करते हैं, पर तुम्हारा अनुसरण करना उनको प्रिय नहीं होता। जो कोई वृद्ध तुम्हारा अनुसरण करते हैं, वे भी लज्जा से या पेट भरने के लिए प्रच्छन्न-वृत्ति से मुझे अंगीकार किये हुए पुरुषों को प्रसन्न करने के लिए पढ़ते हैं। लोग भी उनकी हँसी उड़ाते हैं। 'इतनी बड़ी उम्र में पढ़ने के लिए तैयार हुए हो, क्या पके हुए भाण्ड में कभी कण्ठ लगता है?' संसारी जीव अनादि काल से मेरे अनुकूल ही रहते हैं। संसार में छोटे-छोटे दूधमुंहे बच्चे भी मेरे दीनार आदि रूप को देखकर उल्लसित होते हैं, हँसते हैं, ग्रहण करने के लिए हाथ बढ़ाते हैं। अतः अगर अधिकाधिक वय से परिणत लोग मुझे देखकर उल्लसित होवे, तो इसमें क्या आश्चर्य है? जो जरा से जर्जर वृद्ध हैं, वे अगर मेरे लिए अनेक उपाय करते हैं, तो उसकी हँसी कोई नहीं उड़ाता। बल्कि उनकी प्रशंसा ही होती है कि 'यह वृद्ध होते हुए भी अपनी भुजा से उपार्जित धन से निर्वाह करता है, किसी के भी अधीन नहीं एक बार भी जिसने मेरा रूप देख लिया, वह जन्मान्तर में भी मुझे नहीं भूलता। तुम्हे तो लोग तीन पक्ष (पखवाड़े) में ही भूल जाते हैं। अतः मेरे आगे तुम्हारा मान कितना? अगर यहाँ तुम्हारी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई हो, तो चलो, निकट ही श्रीनिवास नगर है। वहाँ जाकर हम दोनों के महत्व की परीक्षा की जाये।" सरस्वती ने कहा-"चलो वहाँ जाते हैं।'' तब वे दोनों नगर के समीप के उद्यान में गयीं। वहाँ जाकर लक्ष्मी ने कहा-"तुम कहती हो कि जगत के उद्यान में मैं ही बड़ी हूँ। अतः तुम ही आगे नगर मे जाओ। जाकर अपनी शक्ति से लोगों को इकट्ठा करके अपने अधीन करो। बाद में मैं आऊँगी। देखते हैं कि तुम्हारे द्वारा अपने पक्ष में किये गये लोग मेरी सेवा करते हैं या नहीं? वहाँ दोनों में से एक का महत्त्व ज्ञात हो जायेगा।" तब सरस्वती ने अद्भूत-वस्त्राभूषण आदि से विभूषित ब्राह्मण का रूप बनाकर नगर में प्रवेश किया। चतुष्पथ पर जाकर उस मायावी द्विज ने एक बड़ा आवास देखा। उसमें एक करोड़पति श्रेष्ठी रहता था। उस आवास में द्वार के नजदीक ही उस धनिक का सर्व उपमानों से उपमित आस्थान था। महान आभरणों से भूषित अनेक सेवकों के समूह से घिरे हुए भव्य भद्रासन पर बैठे हुए श्रेष्ठी को देखकर उस माया-ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया। वह भी अत्यधिक अद्भुत स्वरूप, सौन्दर्य, सुवेष, सौम्यता आदि गुणों के
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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