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________________ धन्य - चरित्र / 168 जिस प्रकार जावन (थोड़ा सा दही) के संसर्ग से दूध की प्रकृति भी विकृति हो जाती है, उसी प्रकार अपनी पत्नी के द्वारा कुछ भी चुगली आदि किये जाने के कारण आपकी सज्जन-प्र - प्रकृति विकृत हो गयी है । जैसे सुवंश में उत्पन्न धनुष प्रत्यंचा से प्रेरित होकर पर के घात के लिए ही होता है ।" इस प्रकार सचिवों की बुद्धि के प्रपंच तथा नम्र वचनों से बोधित होते हुए धन्य ने मजाक छोड़कर सादर अपनी भाभियों को घर के अन्दर भेजा । फिर धन्य सैन्य- संरम्भ का त्याग करके सचिवादि को साथ लेकर राजा के समीप गया और प्रणाम किया। राजा ने भी अर्ध-आसन के दान द्वारा सत्कार करके उत्साह एवं विनय सहित उसे कहा - 'हे मतिमंत ! श्रेष्ठ ! यह क्या आश्चर्य है? तुम्हें नहीं पहचाननेवाली भाभियों को तुमने व्यर्थ ही खेदित किया, यह अच्छा नहीं लगता, क्योंकि प्रज्ञावान अपने स्वजनों को कभी भी नहीं ठगते ।" शतानीक राजा के इस कथन को सुनकर धनसार - पुत्र ने निश्छल मन से कहा—'हे स्वामी! भाभियों को तकलीफ पहुँचाने में जो हेतु है, उसे सुनिए । इस जगत में लोह - - यन्त्र रूपी ताले और उसके ढ़क्कन की तरह स्नेह से मिले हुए भाइयों के मनों को नारी घर में आते ही चाबी की तरह क्षण भर में अलग-अलग कर देती है । एक कोख से पैदा हुए भाइयों की मनोभूमि में प्रीति, वल्लभता, स्नेह - वल्लरी आदि तभी तक बढ़ती है, जब तक कि स्त्रियों के अलग करनेवाले वचनों से उद्भूत दावानल नहीं जलता है । उस दावानल के जलने पर तो कुछ भी शेष नहीं रहता है। हे राजन! नीति - शास्त्र में भी कहा है कदापि शत्रूणां विश्वासो न कर्तव्यः स्त्रीणां तु विशेषतः, कदाचिदपि नैव करणीया | अर्थात् कभी शत्रुओं का विश्वास नहीं करना चाहिए, स्त्रियों का तो विशेष रूप से कभी भी नहीं करना चाहिए । I इसमें हेतु बताते हैं - क्योंकि शत्रु तो विमुख - विरक्त होने पर ही घात करता है, पर नारी तो सम्मुख रहते हुए भी घात करती है । और भी, सुवंश में उत्पन्न पुरुष स्त्रियों से प्रेरित होकर ही अकृत्य करता है। जैसे- सुवंश में उत्पन्न हुआ मन्थानक स्त्रियों से प्रेरित होता हुआ अति स्नेहिल दही को क्या नहीं मथता ? मथता ही है । प्रेयसी से गृहित हाथवाला पति अरहट के समान घूमता हुआ माता-पिता आदि के प्रबल स्नेह को क्षण में दलित कर देता है । सम्पूर्ण पूर्वावस्था का त्याग कर देता है । कुकूल की नारी द्वारा खाया जाता हुआ - घृष्यमाण भी पुरुष हर्षित होता है, मद करता है । जैसे - तलवार की धार घिसे जाने पर भी तेजस्वी होती है ।" हे राजन! लोकोक्ति है कि 'ब्रह्मा के द्वारा जगत की सर्जना करते हुए शत्रु के निग्रह के लिए चार उपाय रचे, पर कोई भी पाँचवाँ उपाय नहीं रचा, जिससे कि नारी के मन का निग्रह किया जा सके।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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