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________________ धन्य-चरित्र/167 अन्तःकरण में आश्रय देते हुए स्त्रियों ने कहा-'हमारे देवर को पहचानने का एक बहुत बड़ा चिह्न है। उसके दोनों पाँवों में प्रखर तेज से चमकता हुआ पद्म का चिह्न है। उसी से हम उसको पहचान सकते हैं।" तब वे मन्त्री धन्य के पाँवों में रहे हुए पद्म-लांछन को देखने की इच्छा से उन स्त्रियों के साथ धन्य के पास गये और धन्य को प्रणाम करके खड़े हो गये। तब धन्य ने कहा-'आपके आगमन का क्या प्रयोजन है?" __ अपनी भाभियों को आयी हुई देखकर भी उस मायावी धन्य ने नमस्कार किया और बोला-'हे माताओं! कातर मनवाली आप यहाँ किसलिए आयी हैं?" तब भाभियों ने उसे देखकर और पहचानकर कहा-'क्यों हमें अपनी माया से दुःखित करते हो? तुम ही हमारे देवर हो। कल्पवृक्ष क्या कभी किसी को दुःख देता उनके इतना कहकर विरत होने पर धन्य ने कहा-'यह तुम्हारे भद्र हृदय क्यों चक्कर खा रहे हैं? अथवा दुःख के गर्त में गिरे हुए पाप के उदय से दृष्टि मन्द हो गयी है। इस पृथ्वी-मण्डल पर जिस-जिस धन्य नाम के व्यक्ति को देखोगी, तो उसे अपने देवर के रूप में कहते हुए हँसी की पात्र बनोगी।" तब उन्होंने कहा-'हे देवर! बहुत समय बाद तुम्हारा पता चला, पर माया करके तुम स्वयं को छिपा रहे हो। फिर भी तुम्हारे पुण्योदय से उत्पन्न हुए चिह्न को तुम छिपाने में समर्थ नहीं हो। अतः हे मन्त्रियों! हम इनके पाँव धोती हैं, जिससे पद्म के दर्शन से आपके चित्त में भी विश्वास हो जाये।" जब वे पैर धोने को उद्यत हुई, तो धन्य कहने लगा-'हम तो पर-स्त्री के साथ आलाप की भी इच्छा नहीं रखते, तो पाँव धुलवाना तो बहुत दूर की बात है।" इस प्रकार पवित्र वाणी के बीच धुरि पर स्थित सचिवों ने इस प्रकार कहा-'हे सज्जन-शिरोमणि स्वामी। व्यर्थ ही अपने आप को मत छिपाइए। ये भाभियाँ आपकी ही हैं-यह निर्णय हो गया। आप जैसे समर्थ का दम्भ सहित छलपूर्वक अपने ही घर में भाभियों से छिपना क्या उचित है? इनके द्वारा तो पूर्व में अनुभूत बहुत प्रकार से आपका गुण-वर्णन किया है। पर अभी आपकी अन्यथा प्रवृत्ति देखकर हमारे मन में महान विस्मय हुआ है। चूंकि आम्रवृक्ष, इक्षु, चन्दन, अगुरु, वंश आदि वृक्षों की तरह सज्जन तो पत्थर से ताड़ित, पीलित, घर्षित, ज्वालित, छेदित होने पर भी दूसरों का उपकार ही करते हैं। आप तो सज्जनों की धुरी हो, तो फिर ऐसा करना कैसे संभव है? यद्यपि स्वजनों द्वारा अपनी मूर्खता से विपरीत आचरण किया गया हो, तो भी विपत्ति में उनके प्रति शिक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि विपदा से उद्धार करना चाहिए-यही सत् प्रवृत्ति है। सज्जन गिरे हुए पर पाँव का प्रहार नहीं करते, बल्कि विपदा से उद्धार करना चाहिए यहीं सत् प्रवृत्ति है। सज्जन गिरे हुए पर पाँव का प्रहार नहीं करते, बल्कि उसको सहायता करनेवाले होते हैं। पर ज्ञात होता है कि
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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