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________________ धन्य - चरित्र / 7 प्रकार वहाँ ठहरकर कुछ क्षणों तक अपने पुण्य - कार्य का अनुमोदन करता रहा। फिर उसके मन में विकल्प उत्पन्न हुआ कि "मुझे यहाँ आने-जाने में तीन-चार दिन लग गये। घर में तो जो रूपया - आधा रूपया आदि होगा, वह भी ऋण से प्राप्त किया हुआ होगा । अतः नदी में रहे हुए पंचवर्णी गोल-गोल सुकुमारता को प्राप्त हुए इन पत्थरों को ग्रहण कर लेता हूँ, जो कि कोई सेर प्रमाण है, तो कोई दो सेर प्रमाण है । इसी प्रकार तीन, चार, पाँच सेर प्रमाण आदि पत्थरों को ग्रहण कर लेता हूँ । चौराहे पर वणिक, श्रेष्ठी आदि इन्हें तोलने के उपयोग के लिए खरीद लेंगे। अगर न भी बिके, तो भी घर पर रहने पर साधु-दान के स्मारक के रूप में रहेंगे ।" इस प्रकार विचार करके सत्तु की खाली थैली उन पत्थरों से भर ली। फिर थैली का मुख बाँधकर मस्तक पर उठाकर चलने लगा । जाते वक्त जिस गाँव में रात्रि व्यतीत की थी, उसी गाँव में ठहरकर पुनः रात्रि व्यतीत करके प्रातः आगे बढ़ गया । भूख-प्यास से पीड़ित होते हुए दिन का एक प्रहर शेष रहने पर अपने घर पहुँचा । द्वार पर स्थित उसकी पत्नी ने अपने पति को सिर पर भार उठाये हुए आता हुआ देखकर सोचा - "अहो ! मेरे पति सिर पर पोटली लेकर आ रहे हैं। मेरे पिता ने बहुत सारा द्रव्य दिया है, जिसे उठाने में भी असमर्थ है।" इस प्रकार विचार करके सम्मुख जाकर पति के सिर से पोटली लेकर स्वयं वह भार उठाकर घर पर लेकर आयी । अत्यधिक भार की अनुभूति से पति से कहने लगी- "धन जाने से आपका चातुर्य भी चला गया, जो कि मेरे पिता के घर से जो यह बहुत सारा धन लाये हैं, वह भारवाहक की तरह स्वयं उठाकर लाये हैं। आपको लज्जा नहीं आयी ? रूपया आदि खर्च करके भारवाहक क्यों नहीं किया? पर आप भी क्या करते? दुःख की अवस्था में बुद्धि का विनिमय होता है । इतने दिन व्यर्थ ही बिताये। यदि मेरा कहा हुआ पहले ही मान लिया होता, तो इतने समय तक दुःखी नहीं होना पड़ता ।" श्रेष्ठी ने मौन रहकर सब कुछ सुना । वह सोचने लगा- "सत्य का कथन करने पर इसे निराशा होगी। भोजन करके यथावसर कहूँगा ।" उसकी पत्नी ने मंजूषा के अंदर उस भारी पोटली को रखा और पास में रहनेवाले वणिक के घर में जाकर बोली - "बहन ! अच्छी-सी भोजन सामग्री दो । मेरे पति मेरे पिता के घर जाकर बहुत सारा द्रव्य लेकर आये हैं। मैं कल सुबह द्रव्य दे दूँगी।" व्यापारी की पत्नी ने सामग्री दे दी। उसने भी शीघ्र ही सारी रसोई तैयार कर ली । श्रेष्ठी भी स्नान करके भोजन करने बैठा। उसकी पत्नी ने भोजन परोसकर कहा - "स्वामी! आप सुख - पूर्वक भोजन करें। मैं देखती हूँ कि मेरे पिता ने क्या-क्या दिया है । " श्रेष्ठी ने सोचा कि यह कोथली देखेगी, तो निराश हो जायेगी, फिर मेरा भोजन भी विरस हो जायेगा । अतः पत्नी से कहा - "पहले तुम भी भोजन करलो । भोजन के बाद तुम्हे दिखाऊँगा ।"
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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