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________________ धन्य-चरित्र/94 मैं तुम्हारे दुःख को दूर कर सकूँ। तुम मेरे नगर के मण्डन-स्वरूप हो। मेरे अति प्रिय हो। तुम्हारा दुःख देखकर मेरा चित्त संक्रान्त हो गया है।" तब फटे हुए हृदय से पिता ने जैसे-तैसे सारी घटना बतायी। राजा भी वह सभी सुनकर महान आश्चर्य और शोक को प्राप्त हुआ। श्रेष्ठी को धैर्य बंधाकर तथा सैकड़ों सेवकों को बुलाकर रूपसेन की खोज-बीन करने के लिए समग्र नगर में, नगर-वन में, ग्रामान्तर में, बावड़ी, कुएँ आदि में, वेश्या-गृह में, सैकड़ों कोसों तक की दूरी पर ऊँट आदि के प्रयोग से गवेषणा करवायी। पर वे लोग जैसे गये थे, वैसे ही खाली हाथों लौट आये। उसकी गंध का लेश-मात्र भी प्राप्त नहीं हुआ। राजा भी महान आश्चर्य व दुःख के संकट से घिर गया कि आखिर वह कहाँ गया? पर कर्मों की गति विचित्र है। अतिशय ज्ञानी मुनि के बिना यह सब कौन बता सकता था? श्रेष्ठी निराश होकर घर आ गया। छ: मास तक खूब द्रव्य व्यय करके गवेषणा करवायी, पर वार्ता का लेशमात्र भी प्राप्त नहीं हुआ। दैव-गति को कौन हटा सकता है? श्रेष्ठी उसके वियोग-शल्य से होनेवाले दुःख को वहन करते हुए दुःखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। एक दिन सुनन्दा की प्रिय सखी ने लोगों के मुख से वह सारी बात सुनकर सुनन्दा को बतायी। वह भी सुनकर अत्यन्त दु:खत होते हुई सखी को कहने लगी-"क्या यहाँ आकर किसी दुष्ट ने आभरण के लोभ से मार दिया या अपहरण कर लिया?" उसने भी बहुत खोज करवायी, पर कहीं भी कुछ भी पता न चला। एक माह से ऊपर कुछ दिन निकल जाने पर इधर सुनन्दा में गर्भ के चिह्न वमन, शरीर दुःखना आदि प्रकट होने लगे। उसने सखी को वह सब बताया। सखी ने भी उड्डाह कारण मानकर जन्म आदि करानेवाली कुट्टिनी आदि को बुलाकर बहुत सारा द्रव्य देकर क्षार औषधि आदि के प्रयोग से गर्भपात करवा दिया। तब रूपसेन का जीव मरकर सर्पिणी की कुक्षि में तीसरे भव में नाग के रूप में उत्पन्न हुआ। सुनन्दा ने भी सखी द्वारा माँ को कहलवा दिया कि अब मेरा विवाह कर दीजिए। यह सुनकर माता ने भी राजा को निवेदन करके हर्षपूर्वक क्षितिप्रतिष्ठितपुर के राजा के साथ उसका पाणिग्रहण करवा दिया। बहुत सारा सुवर्ण, रत्न, गज, तुरंग आदि देकर जामाता को प्रसन्न करके सुनन्दा को पति के साथ भेज दिया। क्षितिप्रतिष्ठितपुर का राजा भी उसे ग्रहण करके उत्साहपूर्वक अपने नगर में
SR No.022705
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay, Premlata Surana,
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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