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________________ आ. श्री धर्मघोष, आ. श्री समुद्रघोष आदि के प्रति यह बहुमान रखता था । बाद में यशोवर्मा (वि.सं. १९९०-९२) के काल में मालवा पर गुजरात की विजय हुई | महामन्त्री शान्तू शान्तू राजा भीमदेव (वि.सं. १०७८ - १९२०) के राज्यकाल में प्रथम पांच हजार घुडसवारों के सेनापति बने । बाद में कर्णदेव और सिद्धराज के राज्यकाल में क्रमश: मंत्री, दंडनायक और महामंत्री बने । महामंत्री ने अनेक मन्दिर, उपाश्रय आदि बनवाये । मलधारी आ. श्री हेमचन्द्रसूरि के उपदेश से भरुच के शकुनिका - विहार पर स्वर्ण - कलश चढाया । धर्म में स्थिरीकरण मंत्री एक बार हाथिनी पर बैठकर शान्तू - वसही के मन्दिर में दर्शन करने आये । तब वहाँ एक चैत्यवासी साधु वेश्या के कन्धे पर हाथ रखकर खडा था । मन्त्री ने उसे विधिपूर्वक वन्दन किया । इससे वह साधु अत्यन्त लज्जित हुआ । उसकी आत्मा में वैराग्य जागा और मलधारी आ. श्री हेमचन्द्रसूरि के पास फिर से दीक्षा ली । दीक्षा के बाद शत्रुंजय तीर्थ में जाकर कठिन तप करने लगे । बारह वर्ष बीत गये । मंत्रिराज एक बार यात्रा करने शत्रुंजय तीर्थ गये । वहाँ इन तपस्वी साधु के दर्शन किये, किन्तु पहिचान न सके । अतः इनसे गुरु का नाम पूछा । तपस्वी साधु ने कहा- मेरे सच्चे गुरु महामन्त्री शान्तू हैं । मन्त्रिराज ने हिचकते हुए कहाआप ऐसा क्यों फरमाते हैं ? तपस्वी साधु ने बीते वृत्तान्त की स्पष्टता की । मन्त्रिराज आश्चर्य एवं आनन्द का अनुभव करने लगे और धर्म में अधिक स्थिर हुए । से प्रशंसा गुरु- मुख महा शान्तू पराक्रमी, चतुर, राजनीतिज्ञ और धर्मप्रेमी थे । मन्त्रिराज ने ८४००० सुवर्ण सिक्कों का व्यय कर आलीशान मकान बनवाया था । सभी दर्शक मकान की प्रशंसा करते थकते नहीं थे। एक बार महामंत्री ने आ. श्री वासूर को शिष्य परिवार सहित अपने घर आमंत्रित किया और प्रशंसा पाने की आय से पूरा मकान बताया। आचार्य श्री पूरी तरह मौन रहे । मन्त्री (७२)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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