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________________ बलिस्सह के शिष्य श्री स्वाति ने जिनप्रवचन के संग्रहरूप 'तत्त्वार्थ-सूत्र' की और श्री स्वाति के शिष्य श्री श्यामाचार्य (प्रथम कालकाचार्य) ने, जिनका युगप्रधान काल वी.नि. ३४३ से ३८४ है, जिनप्रवचन सुलभ बोध हेतु 'प्रज्ञापना' सूत्र' की रचना की । ये दोनों आचार्य वी.नि. ३७९ में स्वर्गवासी हुए। आर्य सुहस्ती के पश्चात् पट्टावली में गुरुपरम्परा नहीं, किंतु वाचक-स्थविर परम्परा है । यह भी दो प्रकार की है- एक माथुरी वाचना के अनुसार और दूसरी वल्लभी वाचना के अनुसार माथुरी वाचनानुगत पट्टावली में युगप्रधानों के नाम मात्र दिये है उनका समयक्रम नहीं लिखा, तब वल्लभी वाचनानुगत पट्टावली में नामों के साथ समय भी दिया गया है । इन दोनों में क्रमभेद है । इसका मूल कारण दुष्काल आदि की परिस्थितियों को लेकर श्रमणसंघ के दो विभाग हैं । दक्षिण, मध्यभारत और पश्चिम भारत में पहुँचे हुए श्रमण उत्तरभारतीय श्रमणगणों से बहुत दूर विचर रहे थे । अतः उन्होंने उत्तरीय संघस्थविर के स्थान पर अपना नया संघस्थविर नियुक्त कर संघस्थविर-शासनपद्धति को निभाया । फिर दोनों संघों का एक दूसरे से संपर्क हुआ तब संघस्थविर शासनपद्धति एक हो गई । इन दोनों स्थविरावलियों को हम पुस्तक के अन्त में पढ़ेंगे । ___ यहाँ हम गुरुपरम्परा के साथ युगप्रधान आचार्यों का एवं उस समय के अन्य प्रचारक आचार्यों का भी विवरण देखेंगे। आचार्य श्री इन्द्रदिन्नसूरि और दिन्नसूरि (१0 वें और ११ वें पट्टधर) आचार्य श्री सुस्थितसूरि और सुप्रतिबुद्धसूरि के पट्ट पर दशवें आचार्य श्री इन्द्रदिन्नसूरि हुए और ग्यारहवें आचार्य श्री दिन्नसूरि हुए । इनका स्वर्गवास-समय क्रम वी.नि. ४३० और ५१० है । आचार्य श्री प्रियग्रन्थसूरी ये इन्द्रदिन्नसूरि के छोटे गुरू-भाइ थे। ये बडे प्रभावक थे। इन्होने अजमेर के पास हर्षपुर में हजारों ब्राह्मणों को अपनी प्रभावक शक्त्ति से प्रभावित कर जैनधर्म का अनुयायी बनाया। - आचार्य श्री सिंहसूरीजी (बारहवें पट्टधर) आर्य दिन्नसूरि के शिष्य श्री सिंहगिरिजी जातिस्मरण ज्ञान वाले थे। इनके पट्टधर श्री (२२)
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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