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________________ बाला आदि को साध्वी पद पर स्थापित किया । आनन्द, कामदेव आदि को श्रावक एवं रेवती, सुलसा आदि को श्राविका बनाया । धमपिदेश भगवान् ने उपदेश लोकभाषा प्राकृत-अर्धमागधी के माध्यम से दिया । परमाणु से लगाकर आकाश तक के सभी पदार्थों का स्वरूप दर्शन कराते भगवान् ने कहा- "उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा" । इस त्रिपदी का अर्थ है : पदार्थ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है। जैसे सुवर्ण के घट से जब मुकुट बनता है तब घट की आकृति नष्ट होती है, मुकुट की आकृति उत्पन्न होती है और सुवर्ण बना रहता है। जीव तत्त्व के विषय में भगवान् ने कहा यह जीव अनादि है । खान में सोने के साथ मिट्टी लगी रहती है उसी तरह जीव के साथ अनादि काल से कर्म-मेल लगा हुआ है । इसी कर्मदोष से जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य आदि विचित्र अवस्थाओं को पाता है। भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता है, जहाँ जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक से हेरान होता है । दरिद्रता आदि दुःखों से दबा रहता है । अप्रिय के संयोग और प्रिय के वियोग के भय से सदा भयभीत रहता है । मोह और अज्ञान के वश विवेक से भ्रष्ट होता है । सन्निपात के रोगी की तरह हित और अहित को नहीं जानता है । अहितकारी प्रवृत्तियों का आदर करता है और हितकारी प्रवृत्तियों की उपेक्षा करता है । इस प्रकार जीव अनेक संकटों को पाता है। इस स्थिति से बचने के लिए मोह और अज्ञान का त्याग करें । सत्य की सदा खोज करें । देव, गुरु और अतिथिजन की पूजा करें। दीन दुःखियों का उद्धार करें । निन्दनीय प्रवृत्तियों का त्याग करें । जीव मात्र के प्रति मैत्री भाव रखें । तन, मन और धन से परोपकार के कार्य करें । ब्रह्मचर्य का पालन करें । जीवन में सादगी और पवित्रता के लिए तप-त्याग की आदत डालें । शुभ भावनाओं से चित्त को भावित करें । कदाग्रह का त्याग करें । जगत् के स्वरूप का चिन्तन कर और आत्मस्वरूप का भी चिन्तन करें। ___ इस प्रकार कर्म-मैल नष्ट हो जाने पर जीव अत्यन्त विशुद्ध हो जाता है अर्थात परमात्मस्वरूप बन जाता है। तब कर्म-मैल से उत्पन्न होने वाले जन्म, जरा मृत्यु, रोग, शोक आदि कोई उपद्रव नहीं होते हैं, किन्तु जीव सदाशिव निरुपद्रव हो जाता है। अत एव ऊपर कहे गये गुणों के लिए उद्यम करें । इस प्रकार भगवानने तीस वर्ष तक उपदेश दिया । जगत् के जीवों की विचित्रता का कारण कर्म बताया । कर्म के सूक्ष्म सिद्धान्तों को समझाया । जीवों
SR No.022704
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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