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________________ 1 वृक्षों से युद्ध किया । फिर शिला से युद्ध किया । मल्लयुद्ध किया, मल्लयुद्ध में क्षेत्रपाल को कुमार ने मुष्टी के घात से थकाकार दूर फेंक दिया । वह शिला पर गिरा, भयंकर व्यथा हुई पर देव होने से मरा नहीं । फिर कुमार के तेज को देखकर चमत्कृत होकर स्वयं का रूप प्रकटकर कुमार से कहा " हे कुमार! मैं देवों से भी अजेय हूँ । फिर भी तूने मुझे जीता। इससे तूने जगत को जीत लिया, ऐसा मैं मानता |हूँ। अब पूछता हूँ तेरा कौन सा मंत्र, कौन सा धर्म है, जिसके बल से तू बलवान है ?" जयानंद ने उसे शांत, मुक्तक्लेश और प्रीतियुक्त धर्मार्थी जानकर कहा "मेरे देव वीतराग हैं । गुरु चारित्रवान हैं । दयामय समकितादि धर्म है। इससे मैं जय पाता हूँ ।" इस प्रकार विस्तार से | उसने धर्म का स्वरूप सुनाया । क्षेत्रपाल ने धर्म सुनकर कहा - " अच्छा, तूने मुझे प्रतिबोधित कर दिया है। मैं पूर्वभव में ऋद्धिमान् धर्मदत्त नाम का श्रावक था । एकबार उद्यान में धनेश्वर नाम का परिव्राजक देखा । मासक्षमण करता था । चार करोड का धन छोड़कर वह दीक्षित हुआ था । ध्यान मग्न रहता था । निःशंक और निश्चल आसन युक्त था । उसको नमस्कार करने के लिए आये लोगों के सामने मैंने ग्रहस्थपने की मित्रता से कहा - " यह ध्यानी त्यागी और तपस्वी है " यह श्रावकों के द्वारा भी प्रशंसनीय है, ऐसा मानकर राजादि ने उसकी ज्यादा पूजा की । इस प्रकार समकित के चौथे अतिचार से मिथ्यात्व का प्रवर्तन होने से समकित की विराधनाकर मैं मिथ्यात्वी क्षेत्रपाल हुआ । समकितवान् आत्मा वैमानिकदेव में ही जाता है । कहा है- समकिती आत्मा वैमानिक देव का आयुष्य बांधता है, अगर उसने पूर्व में आयु न बांधा हो, या समकित को छोड़ न दिया हो । समकित की विराधना से नीच देवत्व प्राप्त होता है । ૬ बोधिदुर्लभ पना प्राप्त होता है । मैंने आराधन किया हुआ धर्म अतिचार से ही मलिन होने से दुर्गति में नहीं गया । तुझ से ८१
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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