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________________ में एकाग्र होकर निष्कंप बैठ गया । देवी ने दूसरे प्रहर में दिशाओं को धुमील बतायी परिवार ने व्याकुल होकर कोलाहलकर भाग दौड़ की । यह उपसर्ग देवीकृत जानकर कुमार ने सोचा "अरिहंत के ध्यान में मग्न समकित धारी को किसीकी डर नहीं है।' वह पंच परमेष्ठि के ध्यान में लीन हो गया । धूवा जाने के बाद अग्निज्वाला प्रसारितकर देवी रौद्ररूप धारिणी बनकर प्रकट हुई। चक्र त्रिशूल आदि विविध हथियार हाथ में ली हुई उग्र शब्दों में बोली 'रे दुष्ट! मैंने स्त्री और लक्ष्मी प्राप्त करवायी और मेरी गर्दा करता है। अभी मेरी पूजा प्रणाम आदि कर, अन्यथा मेरे क्रोधित होने पर इंद्र भी तेरी रक्षा नहीं कर सकेगा । व्यर्थ ही मर जायगा । फिर अक्षुभित और मौन कुमार के मस्तक पर अंगारे वर्षाये । पर जिनध्यान के प्रभाव से उस अंगारों का लेश भी प्रभाव न हुआ । अग्नि बुझ गयी । फिर देवी ने सिंह छोड़ा वह गर्जना करता उसकी ओर झपटा, परंतु जिनध्यान के प्रभाव से उसकी दाढ़ें गिर गयी और नख तूट गये । वह भी पीछे हट गया। फिर गर्व से देवी ने सर्पो को छोड़ा । वे कुमार को चारों ओर से भीसकर दंश देने लगे, पर उनके भी दांत गिर गये, वे भी दूर हो गये। तब उसने सोचा इसके ध्यान के प्रभाव से मैं पराभव करने में असमर्थ हूँ। अतः अब अनुकूल उपसर्ग से प्रभावित करूँ? फिर वह चंद्रमुखी बनकर मधुर वचनों से बोली । “स्वामिन् ! मेरे सारे अपराध क्षमा करो । दिव्य शरीरवाली को स्वीकारकर मनुष्य भव में दैवी सुख का उपभोग करो । तेरी दासी हूँ। रोज दिव्य भोग भोगेंगे। मैं तेरे आगे प्रीतिपूर्वक गीत-गान नाच करूँगी ।" इस प्रकार कामोद्दीपक वचनों से उसे ध्यान से चलित करने का प्रयत्न किया । पर वह ध्यान से चलित न हुआ। तब देवी विस्मित होकर अपने स्वाभाविक रूप में आकर बोली । तेरे सत्त्व से मैं खुश हूँ: अत: अब उपसर्ग नहीं करूँगी। हे कुमार! तुं यह कौन सा मंत्रादि का जाप कर रहा है जिससे तु निर्भय
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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