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________________ राजा ने कहा "तेरे आकार, विवेक, देवीवाणी से कुलादि सब जान लिया है । मेरी प्रार्थना मत ठुकराना । कुमार मौन रहा । फिर ज्योतिष द्वारा प्रदत्त मुहूर्त में पाणिग्रहण हो गया । कन्यादान में विपुल धनमाल महलादि दिये । कुमार पत्नी के साथ सुखपूर्वक रह रहा है । कुछ दिनों के बाद राजा ने कहा 'विवाह के बाद प्रौढ़ उत्सव करके एक पशु से कुलदेवी की पूजा करनी है। अत: इस चतुर्दशी को पूजा कर लेना ।' तब कुमार बोला । 'मैं कभी भी निरपराधी पशु की हत्या नहीं करूंगा । नहि कराऊँगा, न उसकी अनुमोदना करूँगा।" नरक प्रदान होने से हिंसा के समान कोई पाप नहीं, और (स्वर्ग-अपवर्ग प्रदान से) अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं । हे राजन् ! प्राणीवध से कभी शांति नहीं होती । सर्प के मुख से अमृत, अपथ्य से रोग क्षय, विवाद से साधुवाद नहीं होता। वैसे ही प्राणिवध से शांति नहीं होती । तब राजा ने कहा 'खाद्य पदार्थ से उसकी पूजा करो।' उसकी पूजा नहीं कि तो वह अनर्थ करती है । कुमार बोला-मिथ्यादृष्टि की स्तुति ही नहीं करूंगा तो अर्चना की बात ही कहाँ ? जिसके अरिहंत देव, तात्त्विक गुरु और तात्त्विक धर्म हो उसका इंद्र भी अनर्थ नहीं कर सकता तो देवी की क्या हेसीयत? जिसके हृदय में जिनेश्वर है, उसको ग्रह प्रसन्न होते हैं, देव वश होते हैं। राजा उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते। दुर्जन दूर भाग जाते है, संपत्ति विलास करती है।" तब राजा ने जामाता से अधिक चर्चा करना उचित न जानकर उसको महल में भेज, राजा देवी के मंदिर में गया। और देवी से कहा-तुं ने जो जामाता दिया, वह तेरी पूजा नहीं करता, तू और वह जाने । मैं तेरा भक्त हूँ पर क्या करूं? ऐसा कहकर वह नमस्कारकर घर गया। कुमार भी अपने महल में जाकर उपद्रव की आशंका से अर्हत् देव के पट की पुष्प, धूप-दीप से पूजाकर जिनध्यान
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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