SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयानंद ने स्वीकार किया और वहाँ रहा । एक दिन गर्व से सिंहसार बोला "देख ! अधर्म से मैंने राज्य पाया । हँसकर जयानंद बोला "इतने से राज्य में गर्व आ गया । बरोबर हैं, बिचारा रंक गुड़ के टुकड़े से भी राजी हो जाता है।" उन शब्दों से उसे क्रोध आया परंतु शक्तिशाली के आगे मौन रहा । एकबार सिंहसार ने कहा "मुझे गिरिमालिनी देवी की आराधना करनी है । तुम उत्तर साधक बनो ।'' उसने स्वीकार किया । वे वहाँ गये । देवी की उपासना की । सिंहसार दंभ से मंत्र जपने बैठा । जयानंद ने उसके चारों और घूमकर उसकी सुरक्षा की । दो प्रहर बाद वह उठा और बोला मेरा मंत्र सिद्ध हो गया । अब इस मंत्र जाप के कारण मुझे तो निंद्रा लेनी नहीं है । तुम सो जाओ। मैं रक्षा करूँगा । विश्वस्त जयानंद सो गया । उसे नींद आने के बाद मायावी सिंहसार ने शस्त्र से उसकी दोनों आँखें निकाल दी । और बोला "रे दुष्ट ! मेरे अधर्म पक्ष और राज्य की निंदा करता है । शर्त में हार जाने के बाद भी नेत्र नहीं देता था । इसलिए मैंने ले लिये हैं। अब तू धर्म का फल अन्धा बना हुआ भोग । फिर वह गर्व सहित पल्ली में आ गया।" जयानंद ने सोचा । ‘धिक्कार है मुझे "शास्त्रवेत्ता होकर भी मैंने इस दुष्ट का विश्वास किया। कुत्ते को भी भोजन देने से वह दाता पर स्नेह करता है। इसे दो बार जीवित दान देने पर भी इसने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया ।'' फिर सोचा यह मेरे पूर्वकृत कर्म का ही फल है। सिंहसार तो निमित्त मात्र है। इस आपत्ति में भी मुझे धैर्य रखना है। जिससे नये अशुभकर्म न बंधे । उसने सिंहसार से मन ही मन क्षमायाचना कर
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy