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________________ उस समय महासेन स्वयं आया । महासेन ने सिंह सार को व्याकुलकर बांध लिया। फिर चंडसेन आया । दोनों के भयंकर युद्ध में चंडसेन पर एक शिलाखण्ड गिरा, जिससे चंडसेन मूर्छित हो गया। महासेन उसे बांधकर ले जाय उसके पूर्व जयानंद वहाँ आया और उसने महासेन से कहा 'देख ! मैं निरपराधी भिल्ल और क्षत्रिय को नहीं मारता । तू ने मेरे भाई को कैद किया है, उसे छोड़ दे और चंडसेन के साथ संधि कर ले तो तुझ से युद्ध नहीं करूँगा । महासेन ने कहा "सिंह और मृग की कैसी संधि? और क्या सिंह से मृग को छुड़वाया जा सकता है? शक्ति तो युद्ध में देखेंगे । दोनों का प्रचंड युद्ध हुआ । युद्ध में महासेन हार गया । उसको भिल्लों के द्वारा बंधवाकर जयानंद ने चंडसेन को सोंप दिया । सिंह के बंधन छुड़वा दिये । चंडसेन ने कहा "मेरे प्रबल भाग्य से तेरा मिलना हुआ है । मुझ पर मेरे कुलदेवता तुष्ट हो गये हैं ।" इस प्रकार जय की स्तुतिकर, उस पल्ली को अपनी बनाकर महासेन के साथ अपनी पल्ली में आया । फिर महासेन से दंड वसुलकर प्रणाम करवाकर, उसकी पल्ली जयानंद ने दिलवा दी। वह अपनी पल्ली में गया । उस दिन से चंडसेन जयानंद को अधिक सम्मान की दृष्टि से देखने लगा। सिंहसार तो उसके द्वारा बन्धन मुक्त होने से अत्यंत दुःखी हुआ । जयानंद ने उसे समझाया, पर वह उस पर मन में द्वेष धारण करके बाहर से स्नेह दर्शाने लगा । एकबार चंडसेन आकस्मिक शूल रोग से मृत्यु को प्राप्त हुआ । लोगों ने जयानंद को राज्य लेने को कहा, तब उसने कुराज्य होने से मना किया । लोगों ने सिंहसार को कहा, तब उसने सहर्ष मंजूर किया। एकबार सिंहसार ने सोचा जयानंद यहाँ से चला गया तो पिता का राज्य उसे मिल जायगा ।'' इसलिए उसको कहा “मैं तुम्हारे बिना कैसे रह सकूँगा ?'' "अत: तुम यहाँ ही रहो ।" सरल स्वभावी ५५ NAHARTA
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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