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________________ दृढ़तापूर्वक आराधित दयाधर्म से राज्यसुख को भोगने लगा । भूप और भीम दोनों हिंसा से नरक में गये। गुफा में रहे हुए मुझे प्रतिदिन वंदन करके ही सोम भोजन करता था । देवी के प्रभाव से बिना युद्ध से ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो गयी । राजा ने दया के प्रत्यक्ष फल को देखकर अपने राज्य में अमारी पटह बजा दिया। धर्ममय राज्यों का उपभोग कर सोम अपना आयुष्य पूर्णकर सौधर्म देवलोक में देव हुआ। मैं भी अनेक देशों में विहार करके पुन: यहाँ आया । इसी देवने अवधि से मुझे यहाँ आया जानकर पूर्वोपकार का स्मरणकर नाट्यादि भक्ति की । इस प्रकार दया और गुरु सेवा का सुंदर फल मानकर | नित्यधर्म में उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार जयानंद ने धर्म स्वरूप सुनकर कहा “हे प्रभु! युद्धादि कारण के बिना चार अणुव्रतों के पालन के द्वारा सम्यक्त्व को शोभित रखूगा ।'' ज्ञानी गुरु ने कहा "इन कल्पवृक्ष समान व्रतों का सम्यक् पालन करना। जिससे दोनों लोक में तु सुखभागी होगा। जयानंद मुनि को वंदनकर अपनी आत्मा को | कृतकृत्य मानता हुआ अपने घर आया। सिंहसार ने देशना सुनी, पर भारे कर्मी होने से अश्रद्धा करता हुआ भाई के साथ गुरु को प्रणामकर घर आया । सुर-असुर यथाशक्ति सम्यक्त्वादि ग्रहण कर निजनिज स्थान पर गये। मुनि भी आकाशमार्ग से अन्यत्र गये । श्रीजयानन्द देव-गुरु की भक्ति करते हुए सर्वजन वल्लभ हो गया।" एक बार जयराजा ने दोनों कुमारों में से राज्य चलाने की योग्यता किस में है? ऐसा जानने के लिए किसी सामुद्रिक को गुप्त रूप में पूछा । तब सिंहसार एवं जयानन्द के लक्षणों को जानकर उसने कहा “राजन् ! मुझ पर नाराज न होना । जैसा है वैसा कह रहा हूँ। सिंहसार लोक में अप्रिय स्वजनों को अनर्थकारक, कृतघ्न, क्रूरबुद्धिवाला, आपत्ति का स्थान, धर्मद्वेषी होगा । वह दुर्गतिगामी भी है । ४२ -
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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