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________________ उसने कहा "तो मुझे वहाँ लेजा । दासी ने कहा "पुरुष का प्रवेश असंभव है।" वह स्वस्थान गयी। फिर उसने कुछ सोचकर दूसरे दिन दासी से कहा "मैं जिनेश्वरों के दर्शन के लिए जा रहा हूँ। थोड़े दिन के लिए मेरी पत्नी यहाँ आयगी। उसके साथ तू सखीपना रखना। फिर वह राजा प्रदत्त औषधि द्वारा स्त्री रूप बनाकर रही । दासी ने भी उससे प्रीति की। उसने रात को जैन गीत गाने प्रारंभ किये । उन गीतों से आकर्षित होकर दासी के द्वारा उसे अपने पास बुलवायी । वह आकर प्रणामकर बैठी । फिर उसने उसके विषय में पूछा।" उसने कहा मैं राजपुत्री विद्याधर के साथ विवाहित हूँ। पति रत्नों का ढेर मुझे देकर अभी तीर्थयात्रा के लिए गया है। मैं प्रभु भक्ति में अपना समय व्यतीत कर रही हूँ।" रतिसुंदरी ने उसकी बातों को सत्य समझकर उसे अपने पास आने का निमंत्रण दिया । अब वह धर्म कथा-गीत आदि से रानी का मनोरंजन करती थी । बीच-बीच में काम कथा करती थी पर रानी को वे बातें अप्रिय लगती थी । एकबार उसने कहा "तू यह यौवनावस्था व्यर्थ क्यों व्यतीत कर रही है? वह गया। उसे वापिस आना होता, तो कभी का आ गया होता। अब उसकी आशा छोड़। तू तो गणिका पुत्री है।" तुझे कोई कथन भी नहीं होगा।" "ये वचन सुनते ही उसने उसे धिक्कारा और कहा ये उच्च खानदान कुल के वचन नहीं है। माया नारी ने कहा "देवी! क्षमा करना । मैंने परीक्षा के लिए कहा था। मायानारी को उस पर अंतर में वासना जाग्रत हो गयी । अब वह दो-चार रोज बाद एकाध बार कामोद्दीपन की बात कर लेती थी। रतिसुंदरी ने सोचा 'यह वास्तविक नारी नहीं लगती। जो पुरुष गीत गाता था वही स्वर इसका है। चेष्टा भी पुरुष जैसी है। इसे अपराधी बनाकर सजा देनी है। इसे यह खयाल नहीं हैं कि सती नारी प्राण देकर
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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