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________________ की होती है कायरों की नहीं । आप आपकी राज्य लक्ष्मी का उपभोग करो । यह रणारंभ किसी पूर्व कर्म से हुआ है । तुमको देखकर मन में मित्र के मिलने जैसा आनंद होता है। यह मैं प्रथम दिन आपकी राज सभा में आया तब अनुभव हुआ था । पूर्वभव का स्नेह अवश्य है। मैंने रण में आपको क्षुभित किया है उस अपराध को क्षमा करो । ज्ञानी गुरु मिलेंगे, तब संशय का निवारण होगा । खेचरेन्द्र ने कहा "हे नृपते! मैं ऐसा मान रहा हूँ कि सृष्टि की रचना करनेवालों की कलानुसार विधाता ने तुझे एक ही बनाया है। तेरे जैसा शौर्य, सौजन्य, न्याय, धर्म, विवेक, दया और परोपकार अन्य कहीं नहीं मिलेंगे । तेरी स्तुति करने में शक्र भी शक्तिमान नहीं है । मैंने मेरे मंत्रियों का कहना न मानकर तेरी जो अवगणना की है, उस अपराध की क्षमा कर। तू इतना उदार है कि क्षण भर में मुझे मुक्त कर दिया और मुझे राज्य भी लौटा रहा है। मैं कैसा अपराधी जो तुझ जैसे चिंतामणि समान नर रत्न को मेरा दास और तेरी पत्नि को मेरी दासी का बिरूद देने की जो चेष्टा की । यह सजा जो मुझे मिली है, वह मेरे अपराध का दंड है। मैं तो इससे भी भयंकर सजा का पात्र हूँ। जैसा तुझे मुझ पर स्नेह जग रहा है वैसा प्रेम तुझे देखते ही मुझे भी आ रहा है। भाव तो ये आये कि तुझे गले लगाकर मिलूँ। मुझे विश्वास है कि हम दोनों पूर्वभव में मित्र थे। अब मुझ मित्र पर करूणाकर, मेरे नगर में पधारकर, मेरे नगर को और मेरे महल | को पवित्रकर" जयानंद राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की। फिर खेचर राजा ने अपने नगर में जाकर पूरे नगर का शृंगार किया । हाथी पर बैठकर कुमार को लेने आया । दोनों श्वेत हस्ति पर बैठकर विद्याधरों से पूजित हुए। नगर में प्रवेश करते समय अनेक खेचरियों के द्वारा मोतियों से वधाते हुए, बन्दीजनों के द्वारा स्तुति १७५ -
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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