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________________ प्रेमिका करके गीत सिखाये। मैं पहले भी पति के साथ गीत गाया करती थी। अब मेरे गीत गान द्वारा सुकण्ठ धनवान हो गया । यहाँ भी हम इसीलिए आये थे । पिता को देखकर मैंने मेरी कथा गीत के माध्यम से कही । फिर उसने पिता से पूछा | "विजयसुंदरी कहाँ है?'' पिता ने कहा "वह भिल्ल नहीं था। उसने अपने भाग्य की परीक्षा के लिए वैसा रूप बनाया था । वही यह जगज्जयी जयानंद राजा है। इसके पास में बैठी सर्व सतियों में उत्तम विजयासुंदरी तेरी बहन है।'' पद्मरथ ने अंगुली से निर्देश किया । जयसुंदरी उसके पास जाने लगी । विजयसुंदरी अपने स्थान से उठकर बड़ी बहन को गले से लगाकर रोने लगी तब जयसुंदरी ने कहा 'तुझे धन्य है। शुद्धशील के प्रभाव से, देवगुरु धर्म के महात्म्य से तुझने ही तात्त्विकी समस्या पूर्ण की और उसका फल भी प्राप्त किया । मैंने तो नास्तिकता से पिता को खुश करने के लिए समस्या पूर्ण की, तो उसका फल मुझे मिला । पुण्य-पाप के लिए तो हम दोनों का उदाहरण उत्तम है। यह सुनकर जय राजा ने सभी राजाओं को धर्म-अधर्म के स्वरूप को समझाया । सभीने आर्हत् धर्म की प्रशंसा की।' जय राजा ने सुकंठ को मन चाहा धन देकर, जयसुंदरी को उससे छुड़वाकर, नरसुंदर को उसके नगर से बुलाकर, उपालंभ पूर्वक उसे दी । वह भी लज्जा के कारण" वहाँ से शीघ्र अपने घर गया। थोड़े दिन सभी राजा वहाँ रहकर अपने-अपने नगर में गये । जयानंदकुमार राज्यचिंता पिताजी को सौंपकर स्वयं धर्म क्रिया के साथ केलिक्रीड़ा भी करता था । वसंतऋतु में क्रीड़ा करने गये कुमार को एक भिल्ल व्याघ्र चर्म के वस्त्र पहने हुए, श्वान को रस्सी से बंधा हुआ लेकर, वहाँ आकर, प्रणाम किया । जयानंद राजा ने पूछा "तू कौन है?'' उसने कहा "यमदुर्गनामक पल्ली १५५ -
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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