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________________ एक लक्ष मूल्यवाला एक कंकण गुरु को दे दिया। "धन से संसार में सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।'' गुरु ने उसे नाट्यकला सिखानी प्रारंभ की । पर वह पदन्यास भी नहीं जान सका । उछलने कूदने के अलावा वह कुछ न कर सका । विद्यार्थी गण हास्य करने लगे। फिर गुरु ने गीत के लिए कहा तब उसने कहा "यह तो मुझे आता है।'' उसने गुरु के कहने पर गर्दभ स्वर में एक गीत की दो कड़ी गायी । सभी छात्र हँसने लगे। “गीत तो अतीव मनोहर है। राजकुमारी इसे ही वरेगी!'' दान से संतुष्ट गुरु ने उसे गीत के लिए प्रयत्न करवाया। पर वह निष्फल रहा। फिर वीणा के लिए प्रयत्न करवाया, पर उसमें भी उसने निष्फलता का प्रदर्शन किया। तब गुरु ने उसे कहा “भाई! तू पाठ के योग्य नहीं है।'' उसे पढ़ाना बंदकर दिया। तब कौतुकी वामन गुरु पत्नी के पास गया, और लक्ष मूल्यवाला कंकण दिया। उसने पूछा "मेरी भक्ति का कारण क्या? कुमार ने कहा "पाठक मुझे पढ़ाते नहीं हैं। आप उन्हें कहें, कि वे मुझे पढ़ाये। गुरु पत्नि उसकी दान शक्ति से प्रसन्न होकर बोली "मैं अवश्य कहूँगी । वे तुझे पढ़ायेंगे।" गुरु घर आये। पत्नि ने कहा कि “आप उस दानेश्वरी वामन को क्यों नहीं पढ़ाते? देखो, उसने मुझे यह कंकण दिया है।" पंडित ने कहा "मुझे भी उसने ऐसा ही कंकण दिया था। उसके समान दानी एक भी छात्र नहीं है। मैं इसे पढ़ाता हूँ पर उसे कुछ नहीं आता। मैंने अनेक प्रयत्न किये, पर सभी विफल रहे।" पत्नि ने कहा "जैसे भी हो, वैसे उसे पढ़ाओ। इससे गुरु दक्षिणा अधिक प्राप्त होगी।" फिर उपाध्याय ने छात्रों के हास्य | से बचने के लिए उसे गुप्त रूप से पढ़ाना प्रारंभ किया। परंतु जिसे पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं थी, वह क्या पढ़ेगा? उसे तो कौतुक करना था । उसने कौतुक के द्वारा समय पूर्ण किया।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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