SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहा "हे भद्र! पूर्व में बहन देकर तो परिणाम भोग लिया । कन्या प्रतिज्ञानुसार परमोपकारी ब्रह्मवैष्णव को दे दी है। कन्या भी उस से प्रमुदित है।" यह सुनकर दूत बोला "राजकन्या भिक्षाचर को कैसे दी जाय? "राजा ने कहा "तेरे राजा ने भिल्ल को कैसे कन्या दे दी?" दूत ने कहा "वह तो क्रोधान्ध पने में दी है।" राजा ने कहा "मैंने भी प्रतिज्ञा पालनार्थ दी है।'' दूत ने कहा "राजन् ! अंतर के परिणामों में बाह्य कारण मुख्य नहीं होता । राजकुमार और विप्र में तो महदन्तर है। राजकन्या के स्थान पर उसे दूसरी कन्या दे सकते है। आपकी पुत्री के लिए कंदर्प रूपधर राजकुमार कहाँ? और नटविद्याधारक ब्राह्मण कहाँ? बहुत उपकारी ऐसे ब्राह्मण को गाय, धन, ग्राम नगर आदि दिया जा सकता है, न कि राजकन्या। अधिकभार वहन करनेवाले गधे के गले में रस्सी हो शोभा देती है न कि मोतियन की माला।" राजा ने कहा "तूने जो कहा, वह कार्य करने के पहले सोचने जैसा है। करने के बाद कोई विचार नहीं करना है। सत्पुरुष तो प्रतिपन्न कार्य को पूर्ण करते हैं। इसलिए | पंडितो को सम्मत इस कार्य में विचारान्तर करना असंभव है। अत: हे दूत! दूसरा कोई कार्य हो तो कह।" दूत ने कहा 'राजन् ! स्वहित का विचार करो । शक्तिशाली के साथ संबंध हितकर होगा । अगर आप कन्या नहीं दोगे तो वह बल से ले लेगा । उसे रोकनेवाला | कौन है? पद्मरथ राजा स्वयंवीर हैं। उसके सामने अन्य राजा तृण तुल्य हैं। उसके सैन्य रूपी समुद्र के सामने तू और तेरा सैन्य नहीं टिक सकेगा। फिर तुझे कहीं शरण नहीं मिलेगा । अतः हे राजन् ! अगर राज्य और जीवितव्य की इच्छा हो तो राजकन्या पद्मदत्त को देकर सुखपूर्वक रहो। ऐसे वचन सुनकर उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसको, ऐसा वह राजा बोला "दूत! तू बोलने में तो अग्रसर है, जो मेरे सामने भी ऐसे शब्द बोल रहा है। तूने मुझे जो उपदेश दिया
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy