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________________ चातुर्य की प्रशंसा करने लगे । मंत्रियों के साथ विचारकर राजा स्वइष्ट सिद्धि के लिए बोला “स्त्रियों का यह वृत्तांत सम्यक प्रका से कहा । परंतु सभी ऐसी नहीं होती, और गृहस्थ के लिए उनका त्याग दुर्लभ है । वे भी मुक्ति की अधिकारिणी हैं। जीवों में गुणदोष अपने कर्मोदय से होते हैं। कर्मों का हेतु मिथ्यात्वादि आश्रव है। उसमें लिंग की कोई मुख्यता नहीं है। किसी एक आकार की निंदा क्यों? और तुमने कहा कि सामान्य जन को अधिक प्रिया योग्य नहीं । परंतु तुम सामान्य जन तो हो नहीं, इसलिए हमारी पुत्री से शादी कर मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करो। संत पुरुष किसी की प्रार्थना का भंग नहीं करते । तब मायावी विप्र बोला 'राजेन्द्र! यदि आपकी यह आज्ञा है, तो कुछ समय प्रतिक्षा करो। मेरी कोई प्रतिज्ञा है। वह जब तक पूर्ण न हो, तब तक आप कुछ न कहें । उस प्रतिज्ञा को समय पर जानोगे । इस प्रकार के विप्र के वचन सुनकर राजा मंत्री कन्या आदि सभी हर्षित हुए ।' एकबार राजा राज्य सिंहासन पर बिराजमान था । सभा का कार्य सुचारू रूप से चल रहा था। उस समय प्रतिहार ने आकर कहा "राजन् ! पद्मरथ राजा का दूत आया है।" राजा ने उसे भेजने का आदेश दिया । उसने आकर राजा को प्रणाम किया । राजा दर्शित आसन पर बैठा । राजा ने कुशल समाचार पूछे । आने का कारण पूछा। उसने कहा “पद्मरथ राजा ने कहा है कि "मैंने क्रोधावेश में पुत्री भिल्ल को दे दी। पश्चातापकर उसकी खोज की पर वह न मिली। अब आप भी खोज़ करवाये। विशेष में कहा है आप की पुत्री कमलसुंदरी मेरे पुत्र पद्मदत्त को देकर अपने संबंध को और दृढ़ करे। दोनों का मिलन कंदर्परति समान होगा ।" राजा ने सोचा ‘पूर्व में बहन कौल को देकर दुःख देखा। अब पुत्री तो ब्रह्मवैष्णव को दे दी है, अब इसे कैसे दी जाय?' 'ऐसा सोचकर
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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