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________________ 46 ने शुक पना प्राप्त करवाया है।' उसने सोचा " धिक्कार है मुझे ! मैं मनुष्यभव हार गया, और पक्षी बना । क्या करूँ ? उनके डर से वह उड़ने लगा, तो स्त्रियों ने उसे पकड़कर कहा अय! छल से हमारें छिद्र देखने का फल भोग।" फिर उसे पिंजरे में डाल दिया। दोनों एक दूसरे की प्रशंसा करने लगी । धनदेव परिजनों को देख देख कर शोक करता था। वह वहाँ दुःख से समय व्यतीतकर रहा था । उन दोनों ने उसे शाक छौंकते हुए कहा, कि हम तुझे इस प्रकार छौंक देंगी । अब वह उनसे नित्य भयभीत रहने लगा । इधर रत्नपुर में श्रीपुंज सेठ ने वरराजा का गमन जानकर खोजा पर न मिला । उसने वस्त्र पर लोक देखा । उसे पढ़ा। और पुत्री से कहा 'मैं उसे बुलाऊंगा ।' सागरदत्त सार्थवाह हसंती नगरी जा रहा था । उसे बुलाकर आभूषण धनदेव को देने के लिए देकर कहा कि "" 'वहाँ जाकर कहना कि आप अपनी पत्नी को लेने के लिए शीघ्र पधारो । सागरदत्त समुद्र मार्ग से वहाँ जाकर धनदेव के घर गया। पूछा तो उसकी स्त्रियों ने कहा कि " वह परदेश गया है। सागरदत्त ने आभूषण दिये । उन्होंने ले लिये, और कहा कि वह कहकर गया है कि रत्नपुर से कोई आ जाय तो उसे यह पोपट (शुक) देकर कहना कि यह मेरी पत्नी को दे दे। आप ले जायँ । उसे दे दें ।" वह ले गया। व्यापार कार्यको कुछ दिनों में पूर्णकर वह रत्नपुर में आया । श्रीपुंज सेठ से सब विवरण कहा । शुक दे दिया। उसने अपनी पुत्री को शुक दे दिया । वह उसे देखकर पति का प्रसाद मानकर उसको सदा खुश रखती थी। एक बार उसके पैर के धागे को खेल-खेल में तोड़ दिया । वह असली रूप में धनदेव हो गया। उसके पूछने पर उसने कहा ‘“जो हुआ वह देखा । अब अधिक न पूछ।" उसने अपने पिता से कहा। पूरा परिवार धनदेव को देखकर खुश हो गया। अब वह वहाँ व्यवसाय के द्वारा धनार्जन करता हुआ समय व्यतीत करता १२६
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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