SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निकलकर, भ्रमण करता हुआ हसंतीपुरी में आया। वहाँ उद्यान में उसने एक जिन चैत्य देखा। वहाँ रत्न प्रतिमा युक्त (स्वर्ग विमान को जीते ऐसे) मंदिर को देखकर अत्यंत आनंदित होकर पूजा अर्चना की। वहाँ एक व्यक्ति आया । उत्तम वेषाभूषण युक्त उसे नि:श्वास छोड़ते देखा। मदन ने पूछा "तुम कौन हो? नि:स्वास क्यों छोड़ते हो? कौनसा दु:ख है?" उसने कहा "मै धनदेव वणिक् हूँ। यही रहता हूँ। मेरा दुःख तो कहूँगा? परंतु क्या तू भी दुःखी है?" मदन ने कहा "मेरा दुःख कहने में लज्जा आती है फिर भी प्रथम मिलन में साधर्मिक के नाते स्नेह हो आया है। अतः कहता हूँ।" उसने अपनी पूरी कथा कही। धनदेव ने कहा "यह कुछ नहीं। मेरा वृत्तांत जानेगा तो आश्चर्यचकित हो जायगा। मदन ने कहा मुझे सुनने की तीवेच्छा है। सुनाओ।" उसने कहा इस महानगरी में धनपति श्रेष्ठी था। उस की लक्ष्मी प्रिया थी। उसके दो पुत्र धनसार और धनदेव! माता-पिता स्वर्गवासी हुए। मुनिचंद्र महर्षि से बोधित होकर शोक मुक्त हुए। फिर पत्नियों के कारण कलह होने लगा । दोनों विभक्त हो गये। धनदेव अपनी पत्नी के कारण उद्विग्न रहता था। वह स्वेच्छाचारिणी थी। बड़े भाई के पूछने पर उसने सत्य बात कही। धनसार ने दूसरी कन्या से उसकी शादी करवायी। अब वह उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। परंतु अल्पावधि में वह भी स्वेच्छारीणी हो गयी। एक दिन उसका चरित्र देखने के लिए वह बोला “आज मुझे शीत ज्वर आया है अतः मैं शीघ्र सो जाना चाहता हूँ।'' ऐसा कहकर वह सो गया। थोड़ी देर के बाद उसने नींद का ढोंग कर दिया। घोर शब्द भी किया। इतने में बड़ी ने आकर कहा-'चल सामग्री तैयार कर । दोनों वहाँ से गृहोद्यान के आम्रवृक्ष पर चढ़ी। धनदेव भी चुपके से वहाँ आया और उस वृक्ष के कोटर में बैठ गया। वृक्ष आकाश में उड़ा।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy