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________________ हो। आपका मंत्रवादित्व, आपकी महान् औषधि और आपका परोपकार | इतना आश्चर्यकारी है, जिसका हम प्रत्युपकार करने में असमर्थ हैं। परंतु हे नरोत्तम! आप की रूचि के अनुसार एक देश ग्रहण करके हम पर कृपा करो।" इतना कहकर राजा ने और मंत्रियों ने उसके सामने रत्नालंकार वस्त्रादि रखे। उस माया विप्र ने कुछ भी न लेते हुए कहा “हे राजेन्द्र! संत पुरुष पुन्य के लिए प्रवृत्ति करते हैं। वे पुन्य के अलावा बदले में कुछ भी नहीं चाहते। मेरे पास चिकित्सा से अर्जित धन निर्वाह जितना है। इसलिए अधिक की मुझे आवश्यकता नहीं। क्योंकि अधिक धन तो लोभ की वृद्धि करता है। लाभ से लोभ घटता नहीं, संतोष से ही मैं अपनी आत्मा को संतुष्ट करता हूँ। संतोष सुख से इन्द्र को भी जीता जा सकता है। विप्रधर्म की क्रिया में विघ्नकारी देश से मुझे क्या प्रयोजन? फिर भी इस पर आगे विचार करेंगे। इस प्रकार उसको अलंकारादि से नि:स्पृह जानकर और अति संतोषी मानकर राजा ने पूछा। देश का स्वीकर पीछे करना परंतु अभी आप कहाँ रहे हुए हो। तब विप्र ने कहा। "पत्निसहित वणिक् का घर किराये से लेकर रहा हुआ हूँ।" राजा ने कहा “अब आप मेरे महल में ही पत्नी सहित रहो। इस प्रस्ताव को उसने स्वीकार किया। फिर राजा ने दासीवृन्द के द्वारा उसकी पत्नी को सारे सामान सहित अपने महल में बुलाया। उनको अपने महल की चित्रशाला में ले गया । स्नान भोजनादि करवाया। दास-दासी सेवा में रखे। फिर राजा भोगवती एवं मंत्रियों के साथ विचार करने लगा । विप्र को कन्या कैसे दी जायँ ? भिक्षाचर कुल में जन्में व्यक्ति को देश देना उचित है, कन्या देना उचित नहीं है।" मंत्रियों ने कहा "स्वामी! नृपोचित लक्षणों से शौर्य, प्रकृति और प्रवृत्ति से युक्त विप्र मात्र नहीं है। इसलिए इसे कन्या देनी चाहिए । राजा एकवचनी होते हैं। फिर तो कन्या का भाग्य प्रबल है।" राजा और रानी ने न्याययुक्त वचनों का स्वीकार किया।
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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