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________________ 44 आदि. विप्र के पूर्ण वेश सहित राज सभा में आया। उन्हें आशीर्वाद दिया । राजा ने उसे कनकासन पर बैठाया । राजा ने पूछा " आप कौन हैं? कहाँ से आये हैं ? किस नगर को सुखी कर रहे हो ?" उसने कहा “मैं गिरिपल्ली में रहता हूँ । पिता के उपदेश से विविध औषधियों का ज्ञाता हूँ । उसके लिए अनेक पर्वत वनादि में घूमकर उन औषधियों से अनेकों को निरोग करता हुआ आपके नगर में आया हूँ" तब नृप ने कहा अच्छा है ! तुमने अभी कहा कि मैं परोपकारी हूँ उसे सत्य सिद्ध करो। मेरे पुत्र के हाथ पैर स्तंभित हो गये हैं उसे स्वस्थ कर दो। हे महाशय ! आकृति से आप में विश्वोपकार की शक्ति है ऐसा मैं मानता हूँ।" विप्र ने कहा आप अपने पुत्र को बताओ । अगर संभव होगा, तो प्रयत्न करूँगा।" राजा उसको अमात्यादि के साथ पुत्र के पास ले गया, वहाँ उसे देखकर मायाविप्र बोला " विषम है यह रोग । केवल औषधि से असाध्य है । इसके लिए मंत्र का भी प्रयोग करना होगा । इसलिए मंत्रोपचार के लिए विविध पूजोपचार लाना होगा ।" उसके कथनानुसार सारा सामान लाया गया। उसने आडंबर के लिए परदा बंधवाया । लोगों को दूर किया । बड़ा मांडला बनाया । चन्दन की अग्नि सुलगायी । फिर “ ॐ नमोऽर्हते, ॐ ह्रीँ सिद्धेभ्यः नमो वषट् " इत्यादि मंत्रोच्चार, ध्यान, मुद्रा, आसनादि सहित कर्पूर, अगरु पुष्पादि से होमकर, बली क्षेपकर मांडले में राजपुत्र को स्थापनकर, महौषधि के जल से अभिषेक किया। राजकुमार निरोग हो गया। फिर परदा दूर किया । राजा वहाँ आया । राजपुत्र ने उठकर पिता को प्रणाम किया । फिर स्नेहपूर्वक पुत्र एवं विप्र को गाढ़ आलिंगन देकर उसके साथ कनकासन पर बैठा । सचिवादि संपूर्ण परिवार हर्षित हुआ । 44 1 नगर में बधायी महोत्सव हुआ । चारों ओर मंगल गीत गाये जाने लगे । जन्मोत्सव जैसा उत्सव हुआ। राजा ने विप्र से कहा “हे हमारे भाग्य के जगानेवाला हमारे प्रबल पुन्य के उदय से तुम मिले ११५ "
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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