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________________ कृपालु भिल्ल ने गिरिमालिनी, प्रदत्त औषधि से उसे सुंदर नयन वाली बना दी। दिव्य नेत्रवाली होने से वह बोली "हे प्रिय! इस कार्य से आप महाप्रभावशाली हो गये हैं । ऐसा कार्य देवताओं से भी दुःसाध्य है। आपने मुझे आजन्म सेवा में समर्थ कर दी। भिल्ल बोला “हे मृगाक्षी! औषधि लक्षण ज्ञाता वृद्धशबरवैद्य से यथाविधि औषधि ग्रहण की थी। आज इसका सुंदर उपयोग हुआ । मैं दरिद्र, कुरूप-कुल-जाति, गुपा हीन, मेरे साथ तेरा संयोग विपरीत है। मैं तुझे कैसे दुःखी करूँ? मैं तेरा जन्म व्यर्थ बिगाड़कर पापोपार्जन क्यों करूँ? हे सुकुमारी। तू सूर्य की किरणों से भी अस्पर्शित काष्ठभार को कैसे उठायगी। हे भद्र ! तू पिता के पास जा । उनका रोष शांत हो गया होगा। अपनों पर पिता का रोष क्षण भर रहता है। वे तुझे क्षमाकर किसी राजकुमार से तेरी शादी कर देंगे । हस्त ग्रहण मात्र से परिणित मुझे मेरी आज्ञा से छोड़ने में कोई दोष नहीं है। अतः आ मैं तुझे गुप्त रूप से राजमहल में छोड़ आता हूँ। जन रहित मार्ग से किसी के न देखने से लज्जा का कोई प्रश्न नहीं? और मैं अपने स्थान पर जाऊँगा । कोई नहीं जानेगा ।" ऐसा सुनकर दु:खी होकर वह बोली । "प्राणनाथ! वज्राघात समान आप ऐसा क्यों बोलते हैं ? कन्या एकबार दी जाती है। सती स्त्री असतीत्व सूचक वचन सुनद्री भी नहीं। और कुलीन कन्या पिता प्रदत्त पति को प्राण जाने पर भी नहीं छोड़ती । जैसे भी हो वैसे इस जन्म में आप ही मेरे पति हैं। आप से बिछड़ने से यम या संयम ही शरण है।" इस प्रकार उसके शील और स्नेह की दृढ़ता देखकर बोला “हे भद्रे ! यदि ऐसा है तो तेरे माता की आशीष और कुल देवता की कृपा फलवती हुई है। मैंने किसी कारण से भिल्ल का रूप किया हैं। अब मैं तुझे मेरा असली रूप बताता हूँ, उसे देख ।" फिर उसने अपना असली रूप किया। जिसे देखकर देवियाँ भी मोहित हो जाय, तो विजया का क्या कहना? उसे देखकर हर्ष से गद्गद् स्वर से वह बोली "हे प्रिय !
SR No.022703
Book TitleJayanand Kevali Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year2002
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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