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________________ [68] कुवलयमाला-कथा इसके अनन्तर श्रीधर्मनन्दन सूरि फिर बोले-"हिम-समूह के सदृश उदित महामोह, यश रूपी सुगंध से व्याप्त विवेक रूप कमल का नाश कर देता है। राजन् ! जिनेन्द्रों ने इस संसार को सर्व दुःखमय माना है। इस संसार के असली स्वरूप को महामोह से ने हुए प्राणी नहीं जानते हैं। जो मनुष्य मोह रूपी घोड़े से कभी सन्मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता, वही अगण्य पुण्य का पात्र और पृथ्वी का अलङ्कार समान होता है। इस महान् दुर्धर मोह राजा ने तीव्र व्रत पालने में धुरन्धर जैन मुनियों को छोड़कर सम्पूर्ण तीन लोक को जीत लिया है। अहो, यह मोह महान् समुद्र सरीखा है, क्योंकि महावंशों से भी उसकी थाह नहीं मिलती। हे राजन् ! जिसका मन महामोह से मोहित हो गया है, वह इस पुरुष की तरह गम्यागम्य का विचार नहीं करता, अपनी बहिन के साथ भी संगमन करता है और पिता की भी हत्या कर डालता है।" गुरुराज की बात सुन राजा बोला "स्वामी जी! इस सभा में बहुतेरे आदमी हैं। इनमें से वह कौन है? मैं नहीं जानता।" गुरु महाराज ने कहा"जो तुझ से दूर और वासवमन्त्री से दाहिनी तरफ लेप्यमय मूर्ति की तरह, कार्याकार्य के विचार से शून्य उपरी दिखाऊ सुन्दर आकृति वाले ठूठ की तरह बैठा हुआ है, यही वह पुरुष है। मोह से मोहित चित्त वाले इस पुरुष ने जो कुकृत्य किया है, वह सुनो द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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