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________________ कुवलयमाला-कथा [67] स्थान रमणीय है। चौथे पिशाच की बात सुन लोभदेव गङ्गा की तरफ रवाना हुआ। उसने लोभ का त्याग कर दिया। उसे अखण्ड वैराग्य प्राप्त हुआ। हे पुरन्दरदत्त राजन् ! वह लोभदेव क्रम से घूमता-घूमता यहाँ आकर बैठा है। इस प्रकार भगवान् के मुख से अपना वृत्तान्त सुनकर लोभदेव लज्जा, हर्ष और खेद के अधीन होता हुआ श्रीधर्मनन्दन गुरु के चरणों में गिरकर बोला"जिनके चरण कमल वन्दन करने योग्य हैं, ऐसे हे प्रभु! आपने जो कहा, वह अक्षर-अक्षर से सत्य है। अब मुझे क्या करना चाहिए? सो कहिए।" मुनिराज धर्मनन्दन गुरु ने कहा-“हे वत्स! मित्रवध से लगे हुए पाप-पुञ्ज का क्षय करने के लिए, लोभ रूपी महाराक्षस का अस्पृहा रूपी शास्त्र से विनाश कर डाल तथा विनयावनत होकर तीव्र तपस्या रूपी सरोवर में राजहंस की लीला को धारण कर राजहंस सरीखा बन। क्षमा रूपी कान्ता के सेवन का अभ्यास डाल, कठोर कायोत्सर्ग आचरण कर और पाप-प्रद रजो-गुण की प्रकृति का परित्याग कर। ऐसा करने से तू उस शाश्वत मोक्ष-स्थान को प्राप्त कर सकेगा, जहाँ जन्म जरा मृत्यु आधि व्याधि आदि कुछ नहीं है।" ___गुरुदेव की बात सुन लोभदेव बोला- "भगवन् ! यदि मैं इस प्रकार के चरित्र के योग्य होऊँ तो दीक्षा देने की कृपा करो।" इतना कह वह गुरु के चरण कमलों में गिर गया और उसकी आँखे आँसुओं से भींज गईं। लोभदेव का लोभ शान्त हुआ समझकर पूज्य श्री धर्मनन्दन गुरु ने उसे दीक्षा दे दी। ॥ इति लोभदेव-कथा॥ ++++ लोभदेव की कथा द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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