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________________ [48] कुवलयमाला-कथा गुरु महाराज फिर बोले-"भव्य प्राणियों! यदि तुम आत्मा का कल्याण चाहते हो, तो आर्जव (सरलता) रूपी तलवार से माया-लता को काट डालना चाहिए। हे विद्वानों! जो माया रूपी नदी के बड़े भारी पूर को पार करना हो तो कोशिश करके आर्जव रूपी जहाज को शीघ्र तैयार करो। जगत् के जीवों के लिए माया को भयङ्कर राक्षसी समझो। इस राक्षसी को सरल चित्त के सद्भाव रूपी स्फुरायमाण महामन्त्र के प्रभाव से वश में करना चाहिए। इस संसार में असत्य की खान इस माया को जो मनुष्य अङ्गीकार करता है उसकी दुर्गति होती है और जो अङ्गीकार नहीं करता, कल्याणरूपी लक्ष्मी उसके अधीन हो जाती है। माया अनीति- रूप राजा के क्रीड़ा करने की बढ़िया भूमि है। यह समस्त दुःखों को उत्पन्न करती है और पाप रूपी वृक्षों के वन के समान है। अतः हे पुरन्दरदत्त राजन्! मायाचार करने वाला मनुष्य इस पुरुष की तरह यश, धन और मित्रवर्ग से हाथ धो बैठता है और अपनी जिन्दगी का भी संशय की तराजू में आरोपण करता है।" राजा ने कहा- "हे भगवन्! वह पुरुष कौन सा? उसने क्या किया? यह हम कुछ नहीं जानते।" गुरु बोले-"यह जो तुम्हारे सामने और मेरे पीछे शरीर के भाग को सिकोड़कर बैठा है, शरीर श्याम रंग का है, और अति पापी दिखाई देता है, वह मायावी है। इस कपटी ने पहले जो किया है, सुनो द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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