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________________ [32] कुवलयमाला-कथा "राजेन्द्र! जो सब के बीच में बैठे हैं, वे इन सब मुनियों के अधिपति हैं। वे कुमतवालों के द्वारा बताए कुमार्ग में पड़े हुए जन्तुओं को मुक्तिपरी के मार्ग का उपदेश करते हैं। उनका नाम है धर्मनन्दन सूरि और देवता भी उनके चरणकमल को नमस्कार करते हैं।" यह सुनकर राजा 'बहुत ठीक' कहता हुआ मन्त्री का हाथ पकड़कर गुरु के पास गया। प्रथम, मन्त्री ने स्तुति करके तीन प्रदक्षिणाएँ की और चरणकमल को नमन किया, इससे राजा ने भी (देखादेखी) उसी प्रकार नमस्कार किया। गुरु ने धर्मलाभ दिया और कहा "तुम अच्छे आये, बैठो” राजा भी 'जैसी गुरु की आज्ञा' कहकर फर्श पर बैठ गया। बाद में गुरु की आज्ञा से मन्त्री भी बैठा। उसी समय राजा का अनुकरण करके अनेक मुसाफिर और दरिद्र वगैरह भगवान् को वन्दना करके बैठ गये। भगवान् सब के सुख-दुःख जानते थे, तो भी लोकाचार का पालन करने के लिए सूरि ने उनका कुशल समाचार पूछा, तो वे बोले- "आप पूज्य के दर्शन से आनन्द मङ्गल है।" फिर राजा ने सोचा- 'इन सूरि का रूप असाधारण है, इनमें अगण्य लावण्य है, उसकी कान्ति का अंदाजा नहीं बाँधा जा सकता। इनमें करुणा रस का अपूर्व प्रसार है। उसी प्रकार ये मुनिराज संसाररूपी समुद्र के पुल सरीखे हैं। तृष्णा-लता के वन के लिए फरसा के समान हैं, मान रूपी ऊँचे पर्वत को छिन्नभिन्न करने के लिए वज्र के समान हैं, क्षमा रूपी वृक्ष की जड़ के समान हैं, सर्व विद्याओं की खान हैं, आचार के कुलमन्दिर हैं, क्रोधादिक चार कषाय रूपी सूर्य के महामन्त्र हैं, मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करने में सूर्य के समान हैं, राग रूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए धधकती हुई दावाग्नि समान हैं, नरक के द्वार में आगल बेड़ा सरीखे हैं, सन्मार्ग के वर्तक हैं और अतिशय सहित ज्ञानरूपी मणि के तो भण्डार जैसे दिखाई देते हैं। समस्त गुणों से आलिङ्गन कराने वाले इन मुनि को प्राप्त होने वाला मनुष्यभव सब प्रकार सफल हुआ है। तो फिर इन्हें वैराग्य उत्पन्न होने का कारण क्या होगा? जिससे यौवन-लक्ष्मी का सेवन न करते हुए इन भगवान् ने सब प्रकार के दु:खों की शय्या रूप यह दीक्षा स्वीकार की है, इस विषय में मैं पूछता हूँ' इस प्रकार राजा विचार कर ही रहा था कि इतने में मुनिराज स्वयं कहने लगे-“हे राजा! इस चार गतिवाले संसार में वैराग्य होने के कारण बहुत सुलभ हैं क्योंकि विषय सुख के स्वाद में मोहित हुए दूसरे जीव जो पाप करते हैं, वही विवेकियों के वैराग्य का सबब द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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