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________________ [30] कुवलयमाला-कथा थे। वह राजा सब गुण रूपी सम्पत्ति से सम्पन्न था, लेकिन उसमें केवल एक दोष था, वह यह कि कल्याण रूपी वृक्ष की जड़ के समान जिनवचनों पर उसकी श्रद्धा न थी। जैसे इन्द्र के बृहस्पति मन्त्री हैं, वैसे ही चारों प्रकार की बुद्धि का खजाना वासव नाम का उसका मन्त्री था। राजा उसे भाई के समान, मित्र के समान, पिता के समान और देवता के समान मानता था। वह पुरुषोत्तम रूप मन्त्री, दुःख से जीते जाने वाले(क्रोध मान आदि) शत्रु रूपी हाथियों को पराजित करने में सिंह के समान जिनेन्द्र-कथित सम्यक्त्व को कौस्तुभमणि की तरह धारण करता था। एक समय वासव मन्त्री प्रातः काल की आवश्यक क्रियाओं से निपटकर महापूज्य अर्हन्त भगवान् की पूजा करने के लिए जिनालय में घुस रहा था कि इतने में बाहर के बगीचे का स्थावर नामक माली द्वार पर आ पहुँचा। उसके हाथ में फूलों का एक गुलदस्ता था। उस पर अनेक तरह की खुशबू से बहुत से भौरे इकट्ठे हो गये थे, अतः वह बड़ा मनोहर लगता था। माली मन्त्री के चरणयुगल में नमस्कार करके बोला- "हे देव! जय हो। समस्त कामी जनों को आनन्द देने वाला वसन्त आ गया है।" ऐसा कहकर मन्त्री को फूलों की भेंट की और हाथ में आम की मनोहर मञ्जरी दी। वह फिर कहने लगा-" अपने बाह्य उद्यान में, तारागण से घिरे हुए चन्द्र के समान शिष्यों से शोभित, क्षमा रूपी युवती के तिलक- समान, चारित्र रूपी रत्न के रत्नाकर समान, सर्व मुनियों में मुकुट के समान, दुर्जय कषाय के विभ्रम को नष्ट करने वाले और सधर्मियों को आनन्द देने वाले श्रीधर्मनन्दन नामक मुनीश्वर पधारे हैं"। यह सुनकर भ्रकुटी के भङ्ग से भयङ्कर मुँह बनाकर "अरे अनार्य!" कहते हुए मन्त्री ने आम की मञ्जरी अपने नौकर के हाथ में देकर तिरस्कार करते हुए कहा-"अरे दुराचारी अविवेकी स्थावर! पहले पहल आदर के साथ वसन्तऋतु की मुख्यता बताता है फिर धर्मनन्दनाचार्य के शुभागमन की बात कहता है? कहाँ बाँबी और कहाँ सुमेरु पर्वत? कहाँ भगवान् धर्मनन्दन सूरि? वसन्तु ऋतु मनुष्य के चित्त को कामातुर बनाती है और साधुराज इससे बिलकुल विपरीत अर्थात् काम को शान्त करते हैं। देख, दोनों में कितना अन्तर है। जा, अपनी दुर्बुद्धि की करामात का फल चख।" ऐसा कहकर दर्बान से कहा-“हे प्रतीहार! इस वनपाल को पचास हजार चावल की क्यारी दिलाओ, जिससे यह खेती द्वितीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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