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________________ कुवलयमाला-कथा [9] ही प्रवासी थे, मोर ही चित्रविचित्र थे, बालक ही अविनयी थे, बन्दर ही चपल थे, अग्नि ही किसी को सन्ताप पहुँचाती थी, किन्तु मनुष्य कोई ऐसा न था। वहाँ के पत्थर सुस्पर्श वाले चिकने, जल अमृत जैसा और वृक्ष सब छायादार ही थे। ऋषभदेव के निवास के लिए इन्द्र की आज्ञा से देवों ने उस नगरी को बनाया था, अतएव उसका पूरा वर्णन तो हो ही कैसे सकता है? वहाँ अनेक अचम्भे के स्थान थे, जिन्हें देखकर मुसाफिर लोग अपनी थकावट तथा प्रवास भूल जाते थे। ऐसी कोई चीज न थी जो वहाँ सहज ही न मिल जाय। कहानियों में जो चीजें सुनी जाती थीं, वे भी वहाँ देखने को मिलती थीं। उस नगरी में हँसों का ही शरीर टेढ़ा-मेढा था, मच्छों में ही कुल का क्षय देखा जाता था और प्रसूतिगृह में ही अरिष्ट था, परन्तु लोगों में वक्रता, कुल का क्षय या अरिष्ट नहीं था। न उसमें मनुष्य तथा सरोवर कमलाश्रित सवृत्त से शोभा पाने वाले, स्वच्छ, सच्छाया वाले और द्विजों से भूषित थे। जान पड़ता था कि स्त्रियों के मुखकमल की सुन्दरता से हारकर लज्जा के मारे कमल की पंक्ति सरोवर के जल में तपस्या कर रही है। वह नगरी अखट विभूति वाले घरों की ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से ढंकी हुई थी, इसलिए वहाँ के लोगों को सूर्यमण्डल दिखाई न देता था। वहाँ के राजा का नाम दृढधर्मा था। वह स्वभाव का सरल, चतुरता का भण्डार, दान देने में शूरवीर, दयालु, शरण में आये हुए की रक्षा करने वाला और मधुर वचन बोलता था। वह राजा दुर्भाग्य रूपी शीत से सताये हुए प्राणियों के लिए अग्नि सरीखा था, किन्तु स्वयं अग्निरूप क्रोधी नहीं था। अच्छे आदमियों के मुख- रूपी कमल को खिलाने के लिए सूर्य के समान था, किन्तु स्वयं सूर्य नहीं था। आत्मीय जन रूपी कल्पवृक्षों को हराभरा करने के लिए वर्षा ऋतु के समान था, प्रेमी जन रूपी कमलिनियों के लिए हेमन्त ऋतु के समान था, अपनी स्त्री रूपी कुन्द लताओं के लिए शिशिर ऋतु के समान था, मित्र रूपी वन के लिए वसन्त ऋतु के समान था और शत्रु रूपी जलाशयों के लिए ग्रीष्म ऋतु के समान था। वह राजा अपने राज्य में सतयुगी अवतार सा था और शत्रु राजाओं के देश में कलिकाल के समान था। वह अपनी पत्नी में संतोषी था, कीर्ति पाने में सन्तोषी न था। गुणों का लोभी था, पर धन का लोभी न था, उसे सुभाषित सुनने की इच्छा रहती थी, परन्तु कुकर्म करने की इच्छा न प्रथम प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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