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________________ कथा-प्रारम्भ जम्बूद्वीप में द्वितीया के चन्द्रमा के आकार का छह खण्ड वाला भरत का दक्षिणार्ध क्षेत्र है। भरतक्षेत्र में विनीता नाम की एक नगरी है। वह मध्यदेश की भूमि के मुकुट की मणि सी जान पड़ती है। इस नगरी में महापुरुष नाभि राजा के पुत्र श्रीऋषभदेव का जब राज्याभिषेक हुआ, तब इन्द्र का आसन काँपने लगा। आसन के काँपने से उसने अवधिज्ञान के द्वारा जाना कि भगवान् के राज्याभिषेक का समय है। इन्द्र आया और उसने राज्याभिषेक किया। बाद में युगलिया कमल के पत्ते के दोने में पानी भर कर अभिषेक के लिए आये और भगवान् को अलंकृत देख, उनके दोनों चरणों पर जल छोड़कर अभिषेक किया। इन्द्र ने यह देखकर हर्ष के साथ कहा-"यह नगरी उत्तम और विनयवान् पुरुषों से भरी हुई है। तब ही से इस नगरी का नाम 'विनीता' पड़ गया। इसी नगरी में प्रसन्न चित्त वाले भक्ति और शुभ वासनाओं से भरपूर अन्त:करण वाले इन्द्र ने अनन्त महिममय और अनुपम शरीर रूपी लक्ष्मीवाले श्री ऋषभदेव के लिए एक मनोहर, सुन्दर और ऊँचा महल बनावाया। ऊँचेऊँचे देवालयों पर लटकने वाली ध्वजाओं के वस्त्र मानो उस नगरी के हाथ थे और उन हाथों से 'मेरी सरीखी दूसरी कोई नगरी नहीं है' ऐसा बतलाती हुई वह नगरी शोभा पा रही थी। शरद् ऋतु की शोभा को धारण करने वाली, चमकती हुई स्फटिक मणि की बनाई गई और जिनके ऊपरी हिस्से मानो आकाश को चूमते हों ऐसी हवेलियाँ आकाश में चलने वाले सूर्य के रथ को खरोल देती थीं। विनीता नगरी में मृदङ्ग ही दो मुख वाला था, तलवार ही तीखी थी, घूमते फिरने की आदत भौंरो में ही थी, चन्द्रमा ही कलङ्की था, राजहंस प्रथम प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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