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________________ [164] कुवलयमाला-कथा मन्त्री समझाने लगे-"देव! पहले सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों को ज्वलनप्रभ नामक नागराज ने क्रुद्ध होकर अपनी फैलती हुई विषरूपी अग्नि की ज्वाला से क्षण भर में जलाकर भस्म कर डाला था तो भी सागर राजा ने मन में शोक को स्थान नहीं दिया था। नाथ! इस कुमार को तो कोई देव हरण करके ले गया है, अतः थोड़े दिनों में अवश्य ही उसकी खबर मिलेगी। देव! अधीरता को छोड़कर आप धीर पुरुषों के मार्ग का अवलम्बन कीजिए।" इस प्रकार मन्त्रियों ने उन्हें समझाया तो वहाँ से लौट कर अपने महल में गये। कुमार! जिस दिन से तुम्हारा प्रवास हुआ, उसी दिन से तुम्हारे ही साथ सब के सुख का भी प्रवास हो गया है। तुम्हारे वियोग से अत्यन्त दुःखिता तुम्हारी माता ने निरन्तर आँसू बहाकर पृथ्वी को कीचड़-मय बना डाला है। देव! मानो तुम्हारे वियोग की अग्नि की ज्वाला से डर गये हों, इस प्रकार तुम्हारे अनुजीवियों के प्राण भी पलायन करने की इच्छा करते हैं। देव! तुम्हारे साथ रहने से किसी ने भी किसी प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं किया। किन्तु आज तुम्हारे वियोग से सब मनुष्यों की शोभा कृतघ्नी और अज्ञानी पुरुषों के पास चली गई है। तुम्हारे वियोग से रनवास की स्त्रियाँ तथा नगरी के समस्त प्रजा-जन दुःखी हो रहे हैं। इसमें तो कहना ही क्या, लेकिन नन्हें-नन्हें बालक भी स्तनपान से विरक्त हो गये हैं। जो बालक तुम्हारे बिना पल भर न रह सकते थे, उन्होंने और तुम्हारे वियोग से दःखी मैना और तोता आदि पक्षियों ने भी भोजन छोड़ दिया है तो दूसरों की बात ही क्या है? तुम्हारे वियोग ने नगर-निवासियों को सजीव होते हुए भी निर्जीव और चेतन होने पर भी मुर्दा बना दिया है। देव! ऐसी कोई जगह नहीं बची, जहाँ तुम्हारी खोज न कर ली हो, परन्तु दुर्भाग्य से कहीं से जरा भी पता नहीं चला। भयङ्कर ग्रीष्म ऋतु के नियोग से तालाब जैसे जल क्षीण हो जाते हैं, इसी प्रकार तुम्हारे वियोग से राजा भी कान्ति से क्षीण हो गये हैं। कुमार! इस प्रकार कुछ समय बीतने पर प्रतीहारी ने महाराज से निवेदन किया-“देव! एक तोता आपका दर्शन करना चाहता है।" राजा-"क्या तोता भी कुमार के विषय में जानता है?" ऐसा कह कर राजा ने तोते को अन्दर आने की आज्ञा दी। तोता ने प्रतीहारी के साथ राजा के चरणों के समीप आकर निवेदन दिया तोता- "देव! सुनिये, कुवलयचन्द्रकुमार सकुशल हैं।" तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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