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________________ कुवलयमाला-कथा [163] इस उत्तम पुरुष को प्राप्त करने के लिए ही तू ने अब तक पुरुषों के प्रति द्वेष प्रकट किया था। 'यह पुत्री ब्याही जायगी', यह बात एक जैन ने कही थी, आज वह भी सत्य हुई। वत्स कुवलयचन्द्र! अब यह हाथी महावत को सौंप कर महल में चलो।" महेन्द्रकुमार को साथ लेकर कुमार महल में गया। वहाँ सिंहासन पर विराजमान महाराज को नमन करके अपने योग्य आसन पर बैठा। कुवलयमाला, कुमार की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखती हुई, पिता की आज्ञा से अन्तःपुर (रनवास) में चली गई। राजा ने कुमार से पूछा-'वत्स! कार्पटिक का ऐसा भेष बनाकर तुम अकेले दूर देश में किस प्रकार आये?" कुमार-"यह सब आप जानते हैं। परन्तु कर्म के वश से फिरता-फिरता मैं आज ही इस नगरी में आया हूँ। राजा - महेन्द्रकुमार! जिसके आने के विषय में तुमने मुझसे पूछा था, वही यह राजा दृढवर्मा के पुत्र हैं न? महेन्द्र- स्वामिन्! यही हैं। कुवलयचन्द्र-"तुम्हारा यहाँ कैसे आना हुआ?" महेन्द्र-“देव! सुनो। जिस समय आप अश्वक्रीड़ा करने में लगे हुए थे और आपके समुद्रकल्लोल नाम के घोड़े ने सब राजपुरुषों के देखते देखते आकाश में उड़कर हरण किया, तो वह क्षण भर में ही अदृश्य हो गया। महाराज सारी सेना के साथ बहुत दूर तक आपके पीछे-पीछे आये। आपका कहीं पता न लगा। एक जगह उनका पवनावर्त घोड़ा गिर पड़ा और मर गया। उस समय महाराज आपके वियोग और पवनावर्त की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी हुए और मूर्छित हो कर पृथ्वी पर जा गिरे। केले के पत्तों से हवा करके हम उन्हें होश में लाये। होश में आकर राजा होकर कर्मों का फल जानते हुए भी बालक की तरह विलाप करने लगे कि- 'पराक्रम के आधार भूत सुन्दर अङ्ग वाले, गुणों के समुद्र हे कुमार! तू मुझ अनाथ को छोड़कर किस कर्म के उदय से अकेला चला गया?' इस प्रकार तरह-तरह से विलाप करते महाराज को तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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