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________________ कुवलयमाला-कथा [157] इतना कहकर उस पल्लीपति ने अन्य सब पल्लीपतियों के सामने मुझे सिंहासन पर बिठाकर उनसे कहा-"आज से यही तुम्हारा राजा है। अब जो मेरी इच्छा होगी वह करूँगा।" ऐसा कहकर वह पल्लीपति वहाँ से बाहर चला गया। उनके अनेक पल्लीपति सेवक थोड़ी दूर तक उसके पीछे जाकर वापस लौट आये। मैं उनसे थोड़ी दूर तक और आगे गया। जब मैं वहाँ से लौटने लगा तो उसने मुझे यह शिक्षा दी "वत्स! तू जीववध न करना, भलीभाँति प्रजा का पालन करना, प्राण जाने पर भी अकार्य न करना और श्री जिनधर्म में कदापि प्रमाद न करना।" ऐसा कहकर पल्लीपति न जाने कहाँ चला गया? परन्तु मेरे विचार से उसने किसी गुरु के पास दीक्षा ले ली होगी। कुमार! उस दिन से लेकर मैं तथा मेरे राज्य में दूसरा कोई, कुछ भी अन्याय न करते थे। किन्तु कुछ समय से कर्म-योग से मेरा मन मोह से मोहित हो गया। मैं सब शिक्षा-वचन भूल गया। इसलिए सब प्रकार के अन्याय करने लगा। अतः फूटे घड़े में डाले हुए पानी की तरह मेरे हृदय में से जिन-वचन का सब रहस्य जाता रहा और दुर्जन की प्रीति की भाँति सब शिक्षायें गायब हो गईं। इसलिए मैं ने इस पुरुष को आज्ञा दी कि "मैं लोभ से इस अवस्था को प्राप्त हुआ हूँ। तू मुझे स्मरण कराने के लिए सदा लोहे के डण्डे से मारा कर" इसी से यह पुरुष मुझे हमेशा डण्डा मारता है।" ___ यह सब हाल सुनकर कुवलयचन्द्रकुमार बोला-"यह वृत्तान्त सुनकर किसके हृदय में आश्चर्य न होगा। प्रत्येकबुद्ध राजा रत्नमुकुट महान् सत्त्ववान् है, जिनेश्वर प्ररूपित मार्ग का पालन करना बहुत कठिन है तथा मोह रूपी पिशाच को जीतना अत्यन्त दुष्कर है। महाशय! तुम शिक्षा वचनों को भूल जाने से खेद क्यों करते हो। उसका पश्चात्ताप करने वाले तुम्हारे लिए तो वह शिक्षा अब तक जैसी की तैसी ही बनी हुई हैं। इसलिए तुम पाप का त्याग करो, क्योंकि ऐसे कुकृत्यों से क्या अच्छा फल हो सकता है?" कुमार की यह बात सुनकर पल्लीपति बोला-"तुमने जो कहा, बिलकुल ठीक है, इसमें कोई संदेह नहीं कुमार! विज्ञान, रूप ,कला-कलाप, विनय, चतुरता और दाक्षिण्य आदि गुणों से तुम किसी उच्च कुल में उत्पन्न महासाहसी जान पड़ते हो। परन्तु तुम्हारा कुल कौन सा है? नाम क्या है? यह मैं नहीं जानता। अतः बताओ।" तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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