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________________ [156] कुवलयमाला-कथा क्लेशों का नाश करने वाली देशना देकर निष्कपट प्रत्येक बुद्ध भगवान् पृथ्वी पर विहार करने लगे। उस समय बड़ा कुमार दर्पफलिक और छोटा कुमार भुजफलिक - दोनों भाई सिर्फ सम्यक्त्व को ग्रहण करके श्रावक हुए । इसके पश्चात् मन्त्रियों ने अयोध्या नगरी में हमारे काका राजा दृढधर्मा के पास यह खबर भेजी कि हमारे पिता ने चारित्र अङ्गीकर कर लिया है। उन्होंने बड़े कुमार दर्पफलिक को राज्यासन पर बिठलाने की आज्ञा दी । उनकी आज्ञानुसार सब राजपुरुषों ने यह बात स्वीकार की । केवल एक स्त्री, एक वैद्य और एक भुजफलिक की माता इन तीनों ने हमारे काका की बात न मानी। तीनों ने आपस में सलाह करके, परलोक और अपमान की परवाह न कर मुझे कोई औषधि खिला दी । मैं उससे उसी समय पागल हो गया । अतः कभी वस्त्र उतारकर, कभी पहन कर, कभी धूल से देह को भरकर और कभी हाथ में टुकड़ा लेकर घूमने-फिरने लगा। फिरता फिरता मैं एक बार इस विन्ध्याचल की गुफाओं में आया। मैं भूख और प्यास से बहुत दुःखी हो गया । पर्वत की नदियों में सल्लकी, हरड़, तमाल और आँवला आदि वृक्षों के कन्द, फल, फूल वगैरह से व्याप्त जल को मैंने तीन बार पीया । उस जल को पीते ही मेरा पागलपन मिट गया। मैं धीरे-धीरे शुद्ध बुद्धि वाला हो गया। इसके बाद स्वस्थ चित्त होकर अत्यन्त क्षुधा की बाधा होने से फूल - फलों की इच्छा करके मैं इधर-उधर फिर रहा था। इतने में मैंने अनेक भील लोगों के बीच में बैठे हुए एक अत्यन्त सुन्दर पुरुष को देखा । वह पुरुष मुझे इस पल्ली में ले आया । हम दोनों को वाराङ्गनाओं ने स्नान कराया। फिर मैं उसके देवालय में गया और भगवान् जिनेश्वर को प्रणाम किया । भोजनशाला में आकर रुचि के अनुसार भोजन किया, फिर आनन्द से बैठे। उस समय उस पुरुष ने मुझसे कहा- " भद्र! तुम इस निर्जन वन में किस कारण से आये हो? और श्री जिनेन्द्र के वचनों की प्राप्ति तुम्हें कहाँ से हुई ? सो बताओ ।" मैं- मैं रत्नपुरी के नरेन्द्र रत्नमुकुट का दर्पफलिक नाम का लड़का हूँ। मेरे पिता प्रत्येकबुद्ध हुए हैं। उन्हीं से मैंने जिनधर्म पाया है। कर्म के वश से फिरता-फिरता इस पल्ली में आया हूँ । पुरुष - बहुत अच्छा है, तुम सोमवंशीय रत्नमुकुट राजा के पुत्र हो। हम दोनों का एक ही वंश है । अत: तुम मेरे इस राज्य को स्वीकार करो । तृतीय प्रस्त
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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