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________________ [94] कुवलयमाला-कथा खेत से लौट कर सेठ घर आया । उसके कोई पुत्र न था, इस कारण वह दु:खी था। अब उसने प्रसन्न होकर दीन मुख वाली अपनी पत्नी को वह बालक सौंप दिया। सेठानी अपनी आत्मा की तरह उसका पालन पोषण करने लगी । बालक धीरे-धीरे चन्द्रमा की भाँति समस्त कलाओं से युक्त युवा अवस्था में आया । पिता की कटुक वाणी से जले हुए सब लोगों को अमृत के समान वचनों से शान्ति पहुँचाता हुआ वह वणिक्पुत्र सब जगह प्रसिद्ध हो गया । सर्वत्र उसका नाम विनीत पड़ गया। राजा ने विनीत की चतुराई से प्रसन्न होकर उसके पिता की नगर सेठ उपाधि उसे दे दी। उसके मन में जिनशासन के माहात्म्य से उल्लास होता था, वह मनोहर गुण समूह रूपी वृक्षों का उद्यान था, सब के नेत्रों को आनन्द देने वाला था, सदा सुमार्ग में चलता था, उसने अपने निर्मल यश के समुदाय से सब दिशाओं का अन्तर पूर दिया था- दूरी मिटा दी थी, सदा साधुओं की सेवा करने में कुशल था, उसने पृथ्वी भर के याचकों को खूब धन देकर प्रसन्न कर दिया था, प्रसन्न चित्त रहता था, राजा से अपने पिता का स्थान पाकर भाग्य और सौभाग्य का स्थान वह विनीत लक्ष्मी का पात्र हो गया था । किसी समय उस नगर में महा भयङ्कर दुर्भिक्ष पड़ा । भव्य जीवों को भी यह शङ्का होने लगी कि अब धर्म-कर्म का सत्तानाश हुआ चाहता है। ऐसे समय दुष्काल के दुःख से दुःखी एक बूढ़ा आदमी, बूढ़ी स्त्री और एक युवक कहीं से आकर विनीत के यहाँ नौकरी करने लगे । में उस समय शत्रुओं को कँपाने वाली चम्पा नाम की नगरी में जितारि नाम का राजा राज्य करता था । सूर्य के समान प्रतापी वह राजा कमलोल्लासी था, पर कठोर कर- कर वाला नहीं था और न पृथ्वी मण्डल को ताप गर्मी करने वाला था। उसमें यह आश्चर्य की बात थी । वर्षा करने वाले मेघ का मुँह काला होता है और अन्धकार को विनाश करने वाला सूर्य पृथ्वी को सन्ताप पहुँचाता है । पर राजा जितारि याचकों को मन चाहा दान देने के कारण मेघ और सूर्य के समान तो था, पर काला मुँह वाला था संताप करने वाला नहीं था । १. राजा कमला (लक्ष्मी) को हर्ष पैदा करने वाला और सूर्य कमल को खिलाने वाला था। २. सूर्य की कर (किरण) कठोर = सख्त होती है, पर राजा सख्त कर = टैक्स लेने वाला नहीं था । तृतीय प्रस्ताव विनय पर दृष्टान्त
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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