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________________ विपक्षनिराश स्तव, ७. जगत् कर्तृत्वनिरास स्तव, ८. एकांत निरास स्तव, ९. कलिप्रश्न स्तव, १०. अद्भुत स्तव, ११. अचिंत्य महिमा स्तव, १२. वैराग्य स्तव, १३. विरोध स्तव, १४. योगसिद्ध स्तव, १५. भक्ति स्तव, १६. आत्मगर्दा स्तव, १७. शरणगमन स्तव, १८. कठोरोक्ति स्तव, १९. आज्ञा स्तव और २०. आशी स्तव। वीतराग स्रोत रसयुक्त, आनंद देने वाला एवं सहज भक्तिप्रद ग्रंथ है। इसमें जैन भक्ति व दर्शन का काव्यमय सुन्दर वर्णन है। महादेव स्तोत्र : महादेव स्तोत्र ४४ भोकों की लघु कृति है। संपूर्ण काव्य अनुष्टुप् छंद में है केवल अंतिम छंद आर्या है। यह सरल भावभाषायुक्त है। इस कृति में "शिव" का अर्थ समझाया गया है। उस समय गुजरात में सोमनाथ महादेव पर राजा-प्रजादि सभी की श्रद्धा होने के कारण हेमचंद्र को भी शिवस्तुति के रुप में यह कृति लिखने की प्रेरणा हुई होगी ऐसी विद्वानों की मान्यता है। कृति का अंतिम शोक सोमनाथ की पूजा करते समय कहा गया है- ऐसी साहित्यविदों की मान्यता है ।23 यह श्लोक निम्न है : भव वीजाङ्करजनना रुगाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।।124 सकलार्हत् स्तोत्र : त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की तरह यह भी तीर्थंकरों की स्तुति का गान-ग्रंथ है जिसमें केवल ३५ श्लोक ही हैं। इसके प्रारंभिक छब्बीस श्लोक त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित से लिए गए हैं। अंतिम श्लोकों पर भी साहित्यशास्त्री शंका करते हुए उसे हेमचंद्रकृत नहीं मानते हैं ।25 यह कृति स्वयंभू (पद्मपुराण) पुष्पदंत (तिसद्धिपुरिसगुणालंकारचरिय) आदि की परंपरा में आती है। इन महाकवियों ने भी अपनी कृतियों के प्रारंभ में चौबीस अरिहंतों की स्तुतियां की है। अन्ययोग व्यच्छेद द्वात्रिंशिका : द्वात्रिंशिका का महत्त्व भक्ति एवं काव्य दोनों दृष्टियों से है। इस कृति में बत्तीस श्लोक हैं। भगवान महावीर का महत्त्व, उनका यथार्थवाद, नयमार्ग, उनका निष्पक्ष शासन, भगवान जिन द्वारा अज्ञानी संसार को ज्ञानज्योति से प्रकाशित करना, सामान्य-विशेष वाद, अनित्य- नित्यवाद, ईश्वर, कर्म, धर्म व उसके भेद आदि इस कृति के वर्ण्य विषय हैं। आत्मा एवं ज्ञान की भिन्नता, बुद्धि, मोक्ष, वेदांत समीक्षा, सांख्यसिद्धांत समीक्षा, अकांतमहत्त्व, ज्ञानाद्वैत, शून्यवाद, क्षणभंगूरवाद, आदि विषयों की चर्चा भी इसमें की गई है। हेमचंद्र ने इस कृति में अन्य दर्शनों का खंडन किया है ।।26 डॉ. आनंदशंकर ध्रुव के मतानुसार "चिंतन व भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय इस काव्य में हुआ है कि यह दर्शन तथा काव्य दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट कहा जा सकता है ।27 हेमचंद्र ने इस कृति में अर्हन्मुनि के सिद्धांतों को निर्दोप बताते हुए अन्य दर्शनों के सिद्धांतों को मत्सर से भरपूर 45
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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