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________________ " 'देशीसह संग्रह ' देशीशब्दसंग्रह कहा है। ग्रंथ के अंत की गाथा में " रयणावलि" नाम भी आया है। प्रो. बनर्जी के अनुसार इसमें १९७८ देशी शब्दों का संकलन है।74 डॉ. वूलर ने तो इस ग्रंथ की निरर्थक कह कर आलोचना कर डाली । आलोचना का उत्तर प्रो. मुरलीधर बेनर्जी ने देशीनाममाला की प्रस्तावना में दिया है। प्रो. पिशेल ने भी इसकी आलोचना की है। प्रो. बेनर्जी ने लिखा है - " यदि गाथाओं को शुद्ध रुप में पढ़ा जाए तो उनसे ही सुन्दर अर्थ निकलते हैं । प्रत्येक रसिक उन गाथाओं को सुन्दर कविता समझकर पढ़ता है ।" यह ग्रंथ वर्णक्रम से लिखा गया है। इसके आठ अध्यायों में सात सौ तिरासी गाथाएं हैं। इन गाथाओं के लिए मुसलगांवकर लिखते हैं "विश्व की किसी भी भाषा के कोश में इस प्रकार के सरस पद्य उदाहरण के रुप में नहीं मिलते।” विद्वानों के अनुसार इस कोश में मराठी, कन्नड़ी, द्राविड़ी, फ़ारसी आदि शब्द भी हैं । मुख्यतया गुजराती शब्द अधिक हैं ।" 44 - निघण्टु संग्रह : इस वनस्पति कोश की रचना हेमचंद्र ने अभिज्ञान चिंतामणि, अनेकार्थ संग्रह एवं देशीनाममाला के बाद में की। इस ग्रंथ में तमाम बनौषधियों का विवरण दिया गया है। अन्य कोशों के बाद की रचना IT प्रमाण ग्रंथ का प्रथम लोक है विहितैकार्थ नानार्थ देश्यशब्दसमुच्चयः निघण्टुशेष वक्ष्येडहं नत्वार्हत्पदपकजम् ॥ इस कोशग्रंथ में छः काण्ड एवं तीन सौ छियानवें श्लोक हैं ।" वृक्ष, गुल्म, लता, शाक, तृण एवं धान्य, इस प्रकार छः काण्ड हैं। प्रत्येक काण्ड में क्रमशः १८१, १०५, ४४, ३४, १७, १७ एवं १५ लोक हैं ।” डॉ. वूलर ने अपने ग्रंथ में लिखा है - " निघंटु या निघंटुशेष संबंधी भी कोई वक्तव्य करना चाहिए। यह ग्रंथ इतना प्रसिद्ध नहीं है । जैनाचार्यों के सांप्रदायिक कथनानुसार हेमचंद्रने निघंटु नामक छः ग्रंथ लिखे हैं ।° परंतु अभी तक मात्र तीन का पता चला है। इसमें से दो वनस्पतियों के नाम की सूक्ष्म जानकारी देते हैं । प्राचीन धन्वंतरी निघंटु एवं रत्नपरीक्षा में से यह ग्रंथ अनुकरण करके लिखा गया है। तो यह भी न हो ऐसी बात नहीं । " इस प्रकार ‘“पंचांग सहित सिद्धहेमशब्दानुशासन (अनेक वृत्तियों सहित) तथा वृत्ति सहित तीनों कोश एवं निघंटुशेष, यह सब मिलकर हेमचंद्र का शब्दानुशासन पूर्ण होता है | 2 द्वयाश्रय महाकाव्य : अपने व्याकरण की सफलता ने हेमचंद्र को अपना साहित्यिक कार्यक्षेत्र विस्तृत करने और अनेक संस्कृति - शिक्षा की पुस्तकें लिखने के लिये प्रेरित किया है, जो विद्यार्थियों के संस्कृत रचना और विशेषत: काव्य में शुद्ध और अलंकारिक भाषा के प्रयोग में पूर्ण निर्देशन करें। 37
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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