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________________ मामा नेमिनाग भी जैन- धर्मानुरागी थे। हेमचंद्र की माता ने अपने पुत्र चाऽगदेव को देवचंद्र नामक मुनि को सौंप दिया था, इस प्रकार यह बालक मुनि बना दिया गया। चाऽगदेव को मुनि को सुपुर्द करने की कथा अलग-अलग जैनाचार्यो ने अपने-अपने ग्रंथों में अलग-अलग तरीकों से प्रस्तुत की है। 'प्रभावकचरित' के अनुसार पाहिनी स्वप्न में अपने गुरु को चिंतामणि रत्न भेंट करती है। गुरु से पाहिनी स्वप्न वृतांत कहती है तब गुरुजी ने कहा-तुम्हें शीघ्र ही पुत्र रत्न प्राप्त होगा। राजशेखर के अनुसार-नेमिनाग ने अपनी बहन का स्वप्न गुरु को सुनाया कि "मेरी बहन ने स्वप्न में एक आम का सुन्दर वृक्ष देखा था। वह वृक्ष अतिफलवान दिख रहा था। गुरु ने कहा-तुम्हारी बहन के सुलक्षण सम्पन्न पुत्र होगा जो दीक्षा लेने के योग्य होगा। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि हेमचंद्र के जन्म से पूर्व ही उनकी भवितव्यता के शुभ लक्षण प्रकट होने लगे थे। भारतीय इतिहास में इस प्रकार के अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं कि जन्म से पूर्व जन्म लेने वाली महान् आत्मा के लक्षणों के संकेत प्राप्त होने लगते हैं। माता-पिता द्वारा जिस संतान को शुभ संस्कार प्राप्त होते हैं वह संतान आगे चलकर निश्चित ही युग का इतिहास कायम करती है।' शिक्षादीक्षा एवं आचार्यत्व : वालक चाड्गदेव बाल्यकाल में होनहार था। प्रारंभ से ही उसमें धार्मिक संस्कार देखने को मिले। एक बार वह अपनी माता के साथ गुरु के पास गया। गुरु के उपदेशों से प्रभावित होकर उसने गुरु से दीक्षा देने की मांग की। गुरु की स्वीकृति के बाद बालक का साधु बनना तय हो गया। प्रभावकचरित्र के अनुसार बालक चाड्गदेव जिन मंदिर में जाकर गुरू की पीठ पर बैठ गया। गुरु ने उसकी माता से पुत्र सौंपने को कहा। माँ ने पिता को पूछने की बात कही तब गुरु मौन हो गये। फिर माता ने अनिश्चित होते हुए भी पुत्र को सौंप दिया। इस प्रकार गुरु देवचंद्र उसे स्तम्भतीर्थ (वर्तमान 'खंभात') को विहार कर गये। खंभात में पार्श्वनाथ के मंदिर में वि. सं. ११५० 'माघ शुक्ल १४' शनिवार के दिन चाड्गदेव की प्रथम दीक्षा हुई। दीक्षा के पश्चात् चाड्गदेव का नाम सोमचंद रखा गया। मेरुतुंग एवं राजशेखर ने अपनी-अपनी कृतियों में इस कथा का विस्तारपूर्वक औपन्यासिक रुप दिया है। कुमारपालचरित के रचयिता जयसिंहसूरि ने अपनी कथा में विभिन्न कथाओं का एकीकरण कर अपने ढंग से कथा को सजाया है। उसने तीन बार दीक्षा ११५० वि. सं. के स्थान पर ११५४ वि. सं. में बताकर ९ वर्ष बाद दीक्षा लेन की बात भी दोहरायी गयी है। 26
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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