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________________ "त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित'' सर्गबद्ध ग्रंथ है। यह तेरह सर्गयुक्त सामान्य आकार का ग्रंथ है। यह ग्रंथ संस्कृत के लगभग चार हजार श्रीक अपने में समेटे हुए है। काव्यारंभ में हेमचंद्र विषय निर्देश देते हुए लिखते हैं कि “अब मुनि सुब्रतस्वामी के काल में जन्मे हुए राम, लक्ष्मण और रावण (बलदेव, वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव) का चरित कहा जा रहा है''। 369 सर्गान्त में परोक्ष रूप से अगली कथा की सूचना भी प्राप्त होती है। आलोच्य ग्रंथ का प्रमुख छंद हैअनुष्टप्। सर्गान्त में छंद परिवर्तन होने पर कवि ने वसंततिलका, मालिनी, शार्दूलविक्रीड़ित एवं रथोद्धता छंदों का प्रयोग किया है। रामकथा एतिहासिक घटना है जिसे हेमचंद्र ने अपनी कथा का आधार बनाया है। कथावस्तु का आधार नाटकीय संधियों से युक्त लगता है। "राम" को हेमचंद्र ने नायकत्व प्रदान किया है। कुछ विद्वानों के अनुसार लक्ष्मण नायक हैं। राम एवं लक्ष्मण दोनों ही धीरोदात्त, देवरूप एवं महान गुणों के भंडार हैं। वे क्षत्रीय हैं। काव्य में प्रधान रस शांत है। लगभग साठ हजार राजा-रानियों को जैन धर्म में दीक्षित कर हेमचंद्र ने शांत रस के परिपाक का कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। युद्धादि में वीर रस की सुन्दर अभिव्यंजना हुई हैं। शृंगार, भक्ति, करुणादि रस भी इर्द-गिर्द कार्यरत रहे हैं। "धर्म के सोपानों पर आरोहण कर मोक्ष प्राप्त करना ही मानव मात्र का लक्ष्य हो" ऐसा महान उद्देश्य हेमचंद्र का रहा है जो पुरुषार्थ चतुष्टय में से ही एक है। समयानुसार कवि ने संध्या, प्रभात, रात्रि, अरम्य, जलक्रीडादि का मनोहारी व आकर्षक वर्णन किया है। इस काव्य का सातवां पर्व "जैन रामायण" नाम से विख्यात है। संपूर्ण कृति में तिरसठ महापुरुषों के चरित्रों के सांगोपांग वर्णन है डॉ. रमाकांत शुक्ल लिखते हैं कि इन सभी महापुरुषों में भी "इसके (जैन रामायण के) नायक राम उदात्त (अन्यतम) हैं। काव्य का नामकरण कथानकानुसार उचित ही है। मंजुल अलंकार, दीर्घ कलेवर युक्त, प्रसिद्ध एवं ऐतिहासिक कथानक, वैभवशाली रस, व्यंजना आदि सभी लक्षण महाकाव्योचित हैं।" पाश्चात्य महाकाव्य के लक्षणों के अनुसार भी- आलोच्य ग्रंथ की काव्यप्रतिभा महान उद्देश्य एवं महत् प्रेरणा को नकारा नहीं जा सकता। स्वधर्म (जैन धर्म) का प्रचार कवि का प्रथम उद्देश्य रहा। धर्म ही शांतिस्थल है यह महान प्रेरणा दी गई है। जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में इसकी गुरुता, गंभीरता एवं महत्ता सर्वोपरि है। रावण, रूपी अनीति का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना करना महत् कार्य है। आलोच्य कृति की भाषा, छंद, अलंकार, संवाद, रसादि सभी उत्कृष्टता युक्त हैं जिसका वर्णन हम पूर्व पृष्ठों में कर चुके हैं। विशेषकर रस योजना में तीव्र प्रभावान्विति एवं गंभीरता है। काव्य की विषयवस्तु में नवजीवन शक्ति एवं सशक्त प्राणवत्ता के सहज दर्शन होते हैं। 168
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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