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________________ विशेषकर जैन कवियों ने रामकथा के आधार पर प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत काव्य लिखे हैं।" "जैन साहित्य का अन्वेषण करने से ज्ञात होता है कि जैन धर्म उतना ही पुराना है जितना वैदिक धर्म। मनु चौदह हुए, अंतिम मनु का नाम नाभिराम माना गया। नाभिराम के पुत्र थे ऋषभदेव, जिन्होंने जैन धर्म का प्रवर्तन किया। नेमिनाथ को कृष्ण का चचेरा भाई कहा गया है, अर्थात् कृष्ण बाइसवें तीर्थंकर थे, अतः कृष्ण से पूर्व इक्कीस तीर्थंकर और हो चुके थे। अगर यह सत्य है तो जैन धर्म की परंपरा कृण्ण से बहुत पूर्व कायम हो जाती है। तव हमें जैनों की साहित्य-परंपरा को भी अति प्राचीन मानने में संकोच नहीं । करना चाहिए।" ईसा से ६०० या ४०० वर्ष पूर्व वाल्मीकि ने रामायण की रचना द्वारा सर्वप्रथम रामकथा को जनसमाज के सम्मुख प्रस्तुत किया था। रामकथा की बढ़ती ख्याति का लाभ बौद्धों एवं जैनों ने अपने-अपने ढंग से उठाने का प्रयास किया। "रामकथा की बढ़ती ख्याति से जैन लोग भी अप्रभावित नहीं रहे। उन्होंने अपने सम्प्रदाय के अनुसार कथा में अनेक परिवर्तन कर डाले।" जैन रामकथाएँ अप्रमाणिक एवं रामादि के चरित्र का पतन करने वाली है, यह डॉ. त्रिपाठी का मत है, जो जैन रामकथाकारों पर कटु प्रहार करता है। __हम प्रारंभ में स्पष्ट कर चुके हैं कि जैन साहित्य की प्रारंभिक तीन भाषाएँ रहीं संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश। रामकथात्मक काव्यों की भाषा अधिकांशतः संस्कृत व अपभ्रंश रही। जैन रामकथा की प्रमुख विशेषता यह रही कि यह बौद्धों के समान सांकेतिक न होकर विस्तृत एवं संपूर्ण कथासाहित्य में मिलती है। जैन धर्म के तिरसठ महापुरुषों में राम, लक्ष्मण एवं रावण क्रमशः आठवें बलदेव, वासुदेव एवं प्रतिवासुदेव घोषित हैं। जैन रामकथाओं में राक्षस व वानर दोनों विद्याधर-वंशीय शाखाएँ हैं। विभिन्न प्रकार की विद्याओं पर अधिकार होने से इन्हें विद्याधर की उपाधि से विभूषित किया गया है। __ "हस्तिनाताड्यमानेऽपि न गच्छे जैनमन्दिरम्" जैसी उक्तियों ने साम्प्रदायिकता की बीमारी को तो बढाया ही, साथ में अपार ज्ञानराशि के संचित कोषों के लाभ से भी जिज्ञासुओं को वंचित रखा। कुछ हद तक इस कृत्य में स्वयं जैन दोषी हैं। आज भी उनके साहित्य में असूर्यम्पश्य रखने की प्रवृत्ति दिखाई देती हो। हम आशा करें, औदार्य का आलोक प्रकीर्ण हो। प्राकृत. अपभ्रंश एवं संस्कृत तीनों में "प्राकृत साहित्य की रचना अपेक्षाकृत लोकोन्मुखी वातावरण में हुई। प्राकृत जहां बोलचाल की भाषा थी वहाँ जैन मतावलम्बियों के धार्मिक प्रचार-प्रसार का साधन भी बन गयी।'' अपभ्रंश साहित्य की रचना सातवीं से वारहवीं शताब्दी तक होती रही और 14
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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