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________________ बनाया जिस पर राजा, नगर-जन आमात्यादि विरामन हुए। तभी सीता ने विमान से उतरकर मंच पर सभी राजाओं को प्रणाम किया। 486 लक्ष्मण ने जब सीता से नगर में प्रवेश करने का निवेदन किया तब वे वाली- हे वत्स, प्रथम मैं अपवाद शांत करने के निमित्त शुद्धि करूँगी, तत् पश्चात् नगर में प्रवेश करूँगी। 487 तब राम ने सीता से कहा- "रावण के घर रहकर भी अगर रावण के साथ तुमने भोग न किया हो तो सभी के समक्ष पद के लिए कुछ दिव्य करो।" 468 सीता बोली- "आपके समान कोई बुद्धिमान नहीं जो प्रथम मुझे त्याग कर अब दोष-ज्ञान कर रहे हो।" मैं अव तैयार हूँ। 489 राम ने कहा- मैं जानता हूँ तुम निर्दोष हो मगर लोकापट मिटाने के लिए ऐसा करना आवश्यक था। सीता उस समय पंचदिव्य (अग्नि प्रवेश, तंदुल भक्षण, तराजू आरोहण, सीसापान एवं शस्त्रधार ग्रहण) करने को तैयार हो गई। सीता ने इसे करने हेतु लोगों से आज्ञा माँगी। 4 सीता जब दिव्य करने हेतु उद्यत हो गई तब सिद्धार्थ, नारद एवं समस्त जनों ने राम से सीता की दिव्य प्रतीज्ञा न लेने को कहा क्योंकि सीता सती है इसमें इन्हें कोई संदेह नहीं। परंतु राम ने उनसे कहा-तुम सब दो प्रकार बातें बना रहे हो। जब सीता उस समय दूषित थी तो अब वह शीलवान कैसे हो गयी। अतः तुम्हारे आरोपों को दूर करने हेतु सीता अग्नि प्रवेश करे। 422 इस प्रकार कह कर राम ने तीन सौ हाथ चौड़ा एवं लगभग दस फीट गहरा गड्ढा खुदवाया। उसे चंदन की लकड़ियों से भरा गया। अब इन्द्र देव ने अपने सेनापति को निर्दोष सीता की सहायता करने का आदेश देकर वहाँ भेजा। राम की आज्ञा से अग्नि प्रज्ज्वलित की गयी। अग्नि की भयंकर लपटों को देख राम चिंतामग्न हुए 493 परंतु तभी सीता ने अग्नि के समीप जाकर कहा- "हे लोकों, अगर मैंने राम के अलावा किसी अन्य की इच्छा की हो तो यह अग्नि मुझे जला डाले अन्यथा शीतल हो जाए।" यह कह नमस्कार मंत्र का स्मरण करती हुई साता ने अग्नि-प्रवेश किया। 495 सीता के अग्नि में प्रवेश करते ही अग्नि शांत हो गई एवं गड्ढा जल से भर गया। लोगों ने सीता को जल के कमल पर आसीन देखा। देखते ही देखते वह जल गड्ढे से निकलकर संपूर्ण लोगों को डूबाने लगा। तब सभी कहने लगे- हे महा सती सीता, रक्षा करो. रक्षा करो। यह सुन सीता ने हाथ उठाया एवं जल शांत हो गया। वह गड्ढा सुन्दर वापिका बन गया जिसमें सुगंधित कमल, भ्रमर एवं हंसादि संगीत-नाट करने लगे। सीता की इस विजय से आकाश से पुष्पवृष्टि हुई एवं लोकों में जय-जयक: होने लगा। लवणांकुश हँसते हुए जाकर सीता की गोद में बैठ गए। सभी नेता को नमस्कार किया व राम बोले-" नगरजनों के अपवाद से मैंने तुम्हार त्याग किया था अत: मुझे क्षमा करो। हे सीते, अब विमान में कैंटकर घर नलो एवं पूर्व की तरह 108
SR No.022699
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnuprasad Vaishnav
PublisherShanti Prakashan
Publication Year2001
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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