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________________ (४) Que भगवान् श्री अभिनन्दन जंबूद्वीप के पूर्व महाविदेह की मंगलावती नामक विजय में रत्नसंचया नगरी थी। वहां 'महाबल' नाम का राजा राज्य करता था । महाबल के भव में भगवान् अभिनन्दन का जीव भौतिकता के प्रति सर्वथा उदासीन रहता था। राज्य सत्ता व युवावस्था का जोश भी उन्हें उन्मत्त नहीं बना सका। पिताजी का सौंपा हुआ दायित्व वे निर्लिप्त भाव से निभाते थे और संयम के लिए अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे। अन्त में उनकी सन्तान गुरूकुल से बहत्तर कलाएं सीखकर ज्योंही राज्य चलाने योग्य बनी, महाबल राजा ने उसे राज्य सौंपकर स्वयं को आचार्य विमलचन्द्र के चरणों में संयमी बना लिया । साधना की चिर- अभिलाषा राजा के जीवन में साकार हो गई। राजकीय व पारिवारिक बंधनों से मुक्त होकर वे सर्वथा उन्मुक्तविहारी बन गये। साधना के विविध प्रयोगों के माध्यम से उन्होंने उत्कृष्ट कर्म निर्जरा की और तीर्थंकर गोत्र के रूप में अत्युत्तम पुण्य - प्रकृति का बंध किया । सुदीर्घ साधना को सम्पन्न कर वहां से पंडितमरण प्राप्त कर वे विजय नामक अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए । जन्म देवलोक की ३३ सागर की अवधि समाप्त होने के बाद स्वर्ग से उनका च्यवन हुआ । भरत क्षेत्र की समृद्ध नगरी अयोध्या में राजा संवर राज्य करते थे। महारानी सिद्धार्थ की कुक्षि में वे अवतरित हुए। रात्रि में चौदह महास्वप्न देखकर सिद्धार्था जागृत हुई । सम्राट् वर को जगाकर रानी ने अपने स्वप्न सुनाए । प्रसन्नचित्त राजा ने रानी की प्रशंसा करते हुए कहा- 'हम वास्तव में भाग्यशाली हैं। इन स्वप्नों से लगता है कि हमारा महान् वंश अब महानतम बनेगा, कोई पुण्यात्मा तुम्हारी कोख में अवतरित हुई है। निश्चय ही हम क्या, समूचा विश्व उससे उपकृत होगा।' सवेरे राजा संवर ने स्वप्न पाठकों को बुलाकर स्वप्नों का फल पूछा । स्वप्न पाठकों ने अध्ययन बल व शास्त्रबल से यह घोषणा की कि कोई तीर्थंकर देव महारानी की कुक्षि में अवतरित हुए हैं।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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