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________________ भगवान् श्री ऋषभदेव/३३ भी करना प्रारम्भ कर दिया। संभवतः चोटी की परम्परा वहीं से चल पड़ी। कुछ आचार्य ऋषभ का पंच-मुष्टि हुँचन भी मानते हैं। . ऋषभ की दीक्षा के साथ चार हजार व्यक्ति दीक्षित हुए, किन्तु ऋषभ की छद्मस्थ अवस्था के मौन से सब निराश हो गए थे। कुछ समय तक प्रतीक्षा भी की, किन्तु ऋषभ के सर्वथा न बोलने से उन साधुओं ने सोचा-जीवन भर ऐसे ही निराहार और मौन रहना पड़ेगा और वे घबरा उठे, साधुत्व छोड़कर जंगल की ओर चल पड़े। सब वन- विहारी हो गए। उनमें कोई कंदाहारी बन गया, कोई मूलाहारी, कोई फलाहारी। प्रथम दान दीक्षा के साथ ही ऋषभ के पूर्वार्जित अन्तराय कर्म का विपाकोदय हो गया था। लोग भिक्षा विधि से अपरिचित थे। ऋषभ के प्रति अपार श्रद्धा रखते हुए भी आहार-पानी के लिये किसी ने नहीं कहा। किसी ने हाथी, किसी ने घोड़ा, किसी ने रथ के लिए आग्रह किया। प्रभु को नंगे पैर देखकर किसी ने रत्न-जड़ित जूते लाकर पहन लेने का आग्रह किया। किसी ने नंगे सिर देखकर मुकुट धारण करने का आग्रह किया। ऋषभ के शरीर पर आभूषण न देख कर नाना प्रकार के आभूषणों के लिए आग्रह किया, किन्तु खाद्य-पदार्थों के लिए किसी ने नहीं कहा। शुद्ध आहार के अभाव में ऋषभ को बिना खाये-पीये बारह मास बीत गये। भिक्षा के समय वे भिक्षा की गवेषणा करते, शेष समय में ध्यानस्थ बने रहते । विचरते-विचरते वे हस्तिनापुर पधारे। वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन था। प्रभु भिक्षा के लिए घर-घर गवेषणा कर रहे थे। उधर ऋषभ के प्रपौत्र श्रेयांस कुमार को पिछली रात्रि में एक स्वप्न दिखाई दिया कि श्यामल बने हुए मेरु गिरि को मेरे द्वारा दूध से सींचने पर वह पुनः क्रांतिमान बन गया है। प्रातःकाल अपने महल के गवाक्ष में बैठा हुआ श्रेयांसकुमार रात्रि में आये अपने स्वप्न पर विचार कर रहा था। अकस्मात् राज-पथ पर घूमते हुए अपने परदादा भगवान् ऋषभ उन्हें नजर आये । जातिस्मरण ज्ञान से श्रेयांसकुमार ने जाना कि प्रभु प्रासुक (निर्दोष) आहार की गवेषणा कर रहे हैं ओर लोग उनकी भिक्षा-विधि से अनजान हैं। वे उनको अग्राह्य वस्तुओं को ग्रहण करने का आग्रह कर रहे हैं। तत्काल श्रेयांसकुमार नीचे उतरा । ऋषभ के चरणों में उन्होंने विधिवत् वन्दना कर आहार के लिए प्रार्थना की । भगवान् ने राजमहल में प्रवेश किया। श्रेयांसकुमार तत्काल भीतर गये और देखा, क्या चीज शुद्ध है? उन्हें वहां सिर्फ इक्षु-रस ही शुद्ध मिला । इक्षु रस के मौसम का अंतिम दिन होने के कारण किसान लोग इक्षु-रस के घड़े भेंट में लाये थे, जो एक स्थान पर यथावत् रखे हुये थे।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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