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________________ . २४/तीर्थकर चरित्र मसि-कर्म शिक्षा __ ऋषभ कृषि कला, शिल्प कला की विभिन्न प्रक्रियाओं को सिखाकर अब विनिमय का माध्यम बनाने की सोचने लगे। उत्पादन की वे शिक्षा दे चुके थे। अब उत्पादित वस्तुएं एक दूसरे के पास कैसे पहुंचे इसी चिन्तन में उन्होंने मसि कर्म की शिक्षा का आविष्कार किया। मसि-कर्म अर्थात् लिखा-पढ़ी से वस्तु का विनिमय करना । प्रारंभ में मुद्रा नहीं थी, वस्तु से वस्तु का विनिमय होता था। उनका हिसाब रखना जरूरी था। कौन-सी वस्तु का विनिमय किस मात्रा में होना है जानना जरूरी था। यह निर्धारित करने के लिए कुछ लोगों को प्रशिक्षित किया। लोग बेचारे भोले-भाले थे। इतना हिसाब रखना उनके लिए कठिन था। इस वर्ग ने इस कठिनाई को हल किया। लोगों ने सहर्ष इस कार्य के लिए पारिश्रमिक की व्यवस्था की। उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुंचने में कुछ प्रतिशत मुनाफा लेने की छूट दी। इस विनिमय प्रक्रिया को 'व्यापार तथा इसे करने वाले वर्ग को 'व्यापारी' (वैश्य) कहकर पुकारने लगे। सेवा व्यवस्था कृषि, असि, मसि कर्म की समुचित शिक्षा लोगों ने बाबा से सीखी। एक ऐसा वातावरण बना कि कोई व्यक्ति निष्क्रिय न रहे। लोगों को लगा कि निकम्मा रहना समाज पर भार है। मानवीय संस्कृति में निष्क्रियता को स्थान नहीं हैं। श्रम से कोई छोटा नहीं होता, श्रम करना ही सामूहिक जीवन की सार्थकता है। जो लोग खेती आदि किसी कार्य में दक्ष नहीं बने, वे लोग सेवा और सफाई के कार्य में लग गए। इसमें ज्यादा दिमाग लगाना नहीं पड़ता था। काम किया, पारिश्रमिक पाया। कोई झंझट नहीं, अधिक जिम्मेदारी भी नहीं थी, किन्तु कोई कैसा ही कार्य करने वाला हो, समाज में सब समान थे। ऊंच-नीच की भावना तनिक भी नहीं थी। ऋषभ ने श्रम का ऐसा प्रवाह प्रवाहित किया कि कोई भी व्यक्ति उससे अछूता नहीं रहा। सबको अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार कार्य-चयन का अवसर मिला। वर्ण-व्यवस्था कार्य की अपेक्षा से अलग-अलग वर्ण (वर्ग) बन चुके थे। उनका अलग-अलग कार्य था। भारतीय ग्रन्थों में उपलब्ध चार वर्गों में से तीन वर्णों की उत्पत्ति भगवान् ऋषभ के समय में हो चुकी थी। सुरक्षा का दायित्व संभालने वाला वर्ग क्षत्रिय कहलाता था। कृषि तथा मसि कर्म करने वाले लोग वैश्य कहलाते थे। उत्पादन तथा विनिमय की समुचित व्यवस्था उनके जिम्मे थी। लोगों के दैनिक जीवन की आवश्यकता-पूर्ति इन्हीं दो वर्गों से होती थी। इन दोनों वर्गों को 'वैश्य' शब्द से पुकारा जाता था। कृषि और मसि कर्म के अतिरिक्त अन्य कार्य करने वाले लोग शूद्र कहलाते थे। इनके जिम्मे सेवा तथा सफाई का कार्य था।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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